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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*स्मरण नाम नि:संशय*
*मेरा संसा को नहीं, जीवण मरण का राम ।*
*सुपिनैं ही जनि बीसरै, मुख हिरदै हरि नाम ॥३०॥*
हे राम ! मेरे मन में जन्म-मरण विषयक कोई भी संशय नहीं है । चाहे आज ही मृत्यु हो जाय या कभी कालान्तर में । किन्तु मैं आप से यही प्रार्थना करता हूँ कि मैं अपने हृदय तथा मुख से आपका नाम लेना कभी न भूलूँ-
भागवत में कहा है -
“स्वप्न में भी जो भगवान् का नाम जपता है उसके अक्षय पाप भी नष्ट हो जाते हैं । जो प्रत्यक्ष में नामकीर्तन करता है उसका तो कहना ही क्या !” ॥३०॥
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*स्मरण नाम विरह*
*दादू दुखिया तब लगै, जब लग नाम न लेहि ।*
*तब ही पावन परम सुख, मेरी जीवनि येहि ॥३१॥*
यह मानव इस दुःखमय संसार में तब तक दुःखी रहता है, जब तक वह श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवन्नाम का जप नहीं करता । जब वह श्रद्धा भक्ति से भगवान् का जप करने लग जायेगा तो वह मनुष्य निष्पाप होकर सुखी हो जायेगा । अतः मैं तो भगवान् का नाम स्मरण करने के लिये जीवित हूँ । लिखा है -
आनन्दरूप मुरारिभगवान् के नाम की जय हो, जय हो । क्योंकि नाम जपने वाले के ध्यान-पूजा आदि से होने वाले कष्ट स्वयं ही निवृत्त हो जाते हैं । यदि प्राणी मुक्तिदाता भगवान् के नाम को किसी भी प्रकार से पुकारे, और उसे एक बार भी ले ले तो उसके लिये वह परम अमृत बन जाता है । भक्त के लिये भगवान् का नाम ही जीवन और भूषण है ॥३१॥
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*स्मरण नाम पारख लक्षण*
*कछु न कहावे आप को, सांई को सेवे ।*
*दादू दूजा छाड़ि सब, नाम निज लेवे ॥३२॥*
व्रत, तप, स्वाध्याय रूपी कर्मों को त्यागकर, निष्कामभाव से भक्तिपूर्वक पवित्र अन्तःकरण से हरि का नाम जपना चाहिये । गीता में भी निष्काम भक्ति की ही प्रशंसा लिखी है, क्योंकि सकाम भक्ति का फल नश्वर होता है । नाम प्रधान भगवान् का कीर्तन भक्ति-मुक्ति का हेतु है । परन्तु भगवान् का भक्त मुक्ति चाहता ही नहीं । भागवत में कहा है-
“मेरा भक्त न ब्रह्मलोक की इच्छा करता है, न इन्द्रलोक की, न वह पृथ्वी का सार्वभौम साम्राज्य ही चाहता है, न पाताल का राज्य । एवं न योगजन्य सिद्धियाँ ही चाहता है और न वह मोक्ष की कामना ही करता है । वह तो मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहता” ॥३२॥
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*स्मरण नाम से संशय की निवृत्ति*
*जे चित्त चहुँटै राम सौं, सुमिरण मन लागै ।*
*दादू आत्मा जीव का, संसा सब भागै ॥३३॥*
यदि साधक का मन भगवान् के नाम चिन्तन में क्षणभर भी ठहर जाय तो उसके समग्र संशय क्षीण हो जाते हैं । क्योंकि भगवन्नाम कीर्तन समग्र पापनाश का हेतु है, अतः साधक के अन्तःकरण में संशय तो प्रवेश ही नहीं कर सकता ॥३३॥
(क्रमशः)

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