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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*शरीर सरोवर राम जल, माहीं संजम सार ।*
*दादू सहजैं सब गए, मन के मैल विकार ॥५९॥*
यह शरीर तीर्थ है । इसमें रामनाम का जल भर कर इन्द्रियसंयमरूपी स्नान करो । इससे मन के विकार नष्ट हो जायेंगे । लिखा है-
“हे मनुष्यो ! यदि संसार सागर को पार करके विना विघ्न-बाधा के पवित्र मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हो तो पवित्र ज्ञानरुपी जल में स्नान करो ।
क्योंकि तीर्थों के जल से हजारों बार स्नान करने पर भी मन के अन्दर का पाप नहीं धुलता । अतः हमारा मन पापों से लिपटा हुआ है, ऐसा विचार कर हे संसारी जनो ! सम्यक् ज्ञानरुपी जल में स्नान करो ।
तीर्थों में जाकर स्नान करने वालों के शरीर का मल अवश्य नष्ट हो जायेगा, लेकिन मन का कीचड़ नहीं साफ होगा । अतः अपने मन की पवित्रता के निमित्त सच्चरित्ररूपी जल में स्नान करो ।
ओ सुबुद्धि मानवो ! वेद के वाक्य ही तीर्थ हैं । ज्ञानरुपी जल से यह तीर्थ भरा हुआ है । यह ज्ञानजल सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने में दक्ष है । विनय और शील इसके किनारे हैं । सच्चरित्र रूपी तरंगों से यह व्याप्त है । करुणा ही इसकी अगाधता है । ऐसे सुन्दर निर्मल जल वाले श्रुतिवाक्य रूपी तीर्थ में स्नान करो ॥५९॥”
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*दादू रामनाम जलं कृत्वां, स्नानं सदा जित: ।*
*तन मन आत्म निर्मलं, पंच-भू पापं गत: ॥६०॥*
शास्त्रों में दो प्रकार का स्नान विहित है- १.शरीर एवं २.मानस । बाह्य स्नान की अपेक्षा मानसिक स्नान ही अधिक महत्त्व रखता है । उस मानसिक स्नान का साधन रामनाम का जप है । उसे सम्पूर्ण इन्द्रियजन्य पाप नष्ट हो जाने से मन निर्मल हो जाता है । भागवत में लिखा है-
अज्ञान तथा ज्ञान से किया पाप भगवान् के नाम-स्मरण से उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे अग्नि से लकड़ी जल जाती है ।
“उत्क्रष्ट औषध को जाने अनजाने किसी भी प्रकार सेवन करने से वह अपना प्रभाव दिखाती ही है, उसी प्रकार मन्त्र भी जपने पर अपना प्रभाव दिखाता ही है ।”
इसी तरह, मैं सत्य कहता हूँ- अच्युत, आनन्द, गोविन्द आदि नामों का उच्चारण करने से सब रोग नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि यह सब रोगों की एकमात्र दवा है ।
एक बार भी ‘नारायण’ ऐसा नाम उच्चारण करने मात्र से सैकड़ों कल्पों तक गंगा आदि तीर्थों में स्नान करने से जो फल मिलता है, वह प्राणी को मिल जाता है अर्थात् सब तीर्थों में उस का स्नान हो जाता है ॥६०॥
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*दादू उत्तम इन्द्री निग्रहं, मुच्यते माया मन: ।*
*परम पुरुष पुरातनं, चिंतते सदा तन ॥६१॥*
अतः शास्त्र में इन्द्रिय संयम को ही सर्वोत्तम स्नान बताया है । इससे साधकों का मन सांसारिक माया से मुक्त हो जाता है और इसके सहारे, पुरुषोत्तम भगवान् के चिन्तन में मन स्वतः प्रवृत्त हो जाता है ॥६१॥
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*दादू सब जग विष भर्या, निर्विष बिरला कोइ ।*
*सोई निर्विष होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥६२॥*
भक्त को छोड़कर सम्पूर्ण संसार ही विषयवासनाओं में लिप्त है । भक्त की विषयवासना तो भगवान् का ध्यान करने से नष्ट हो जाती है । अतः अपने मन को वासनातीत बनाना चाहिये, क्योंकि वासनारहित मन की ही मुक्ति मानी जाती है, वासना वाले मन की नहीं । योगवासिष्ठ में लिखा है-
“मन ही मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण है । विषयासक्त मन बन्धन का हेतु और निर्विषयक मन मुक्ति का हेतु है । अतः मुमुक्षु को अपना मन निर्विकल्प रखना चाहिये ॥६२॥”
(क्रमशः)
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