मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

विरह का अंग १/४

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥१॥* 
*रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव ।* 
*दादू औसर अब मिलै, यहु विरहनी का भाव ॥२॥* 
प्रेमप्रधाना भक्तों की अन्तःकरणवृत्ति ही विरहिणी होकर भगवान् श्रीराम से प्रार्थना कर रही है-हे राम ! हे मेरे परम् स्नेही ! आइये, आइये ! दर्शन दीजिये ! बड़े भाग्य से मैंने यह मनुष्य शरीर पाया है । यदि अब भी आपके दर्शन न होंगे तो फिर कब होंगे । दर्शन के लिये अवसर तो इस मनुष्य शरीर में ही है । अतः विलम्ब न करें । यहाँ इसका अभिप्राय यह है कि शास्त्र में विरह की दश अवस्थाएं बताई गई हैं, जैसा की भक्तिरसामृत सिन्धु ग्रन्थ में लिखा है- 
“शरीर का जलना, शरीर में दुर्बलता, नींद का न आना, आलम्बन शून्यता, अधृति, जड़ता, व्याधि, उन्माद, मूर्च्छा और मरण-ये दस अवस्था विरह की होती हैं ।” 
चित्त की एक जगह स्थिति न रहने को ही ‘आलम्बनशून्यता’ कहते हैं और विद्वानों ने सब में अरुचि को ही ‘अरागिता’ कहा है । 
श्रीदादूजी महाराज ने भी इस विरह के अंग में कहीं कहीं दश अवस्थाओं का वर्णन किया है ॥२॥ 
*पीव पुकारै विरहनी, निशदिन रहे उदास ।* 
*राम राम दादू कहै, ताला-बेली प्यास ॥३॥* 
मैं वियोगिनी, भोगों से उदास रहती हुई तेरे दर्शन की प्यास से अतिव्याकुल होकर हे ईश्वर ! आप से प्रार्थना करती हूँ - हे राम, हे राम !’ आप अपने स्वस्वरूप का दर्शन दीजिये । पता नहीं, प्रार्थना करने पर भी, किस कारण मुझे आपके दर्शन नहीं होते ॥३॥ 
*मन चित चातक ज्यों रटै, पीव पीव लागी प्यास ।* 
*दादू दर्शन कारणै, पुरवहु मेरी आस ॥४॥* 
हे राम ! आपके दर्शन की इच्छा मेरे मन में उत्कट हो रही है । और मेरा मन भी चातक की तरह आपका ही अहर्निश स्मरण करता है । अब तो आप को मेरी यह दर्शनाशा पूरी करनी ही चाहिये ॥४॥ 
(क्रमशः)

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