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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*शब्द तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी ?*
*तूँही, तूँही निशदिन करूँ, विरहा की जारी ॥७॥*
किसी वन में श्यामा नाम की बहुत सी चिड़िया रहती थीं । वह चटका समूह ‘तुंही तुंही’ जपता रहता था । उसको देखकर वियोगिनी स्त्री स्वयं ही मन में प्रश्न कर के स्वयं उत्तर देती है-“हे चटके ! तेरा शरीर दर्शन योग्य न बहुत सुन्दर था, फिर तूं काली कैसे हो गयी ! वे उत्तर देती है कि हे वियोगिनी ! ‘तुंही तुंही’-ऐसा बोलते-बोलते मुझे विरहाग्नि जलाती रहती है, इसी कारण से श्यामता को प्राप्त हो गयी हूँ । फिर भी मुझे दर्शन नहीं हुए । मैं मानती हूँ कि अभी मैं प्रभु दर्शन के योग्य पात्र नहीं हूँ ॥७॥
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*दादू विरहनी दुख कासनि कहै, कासनि देइ संदेश ।*
*पंथ निहारत पीव का, विरहनी पलटे केश ॥५॥*
यह वियोगिनी वृत्तिरूपा स्त्री अपना दुःख मैं किसके आगे निवेदन करूं । किसको आपके पास सन्देशवाहक बनाकर भेजूं । आपकी प्रतीक्षा करते करते मेरे शरीर भी जर्जर हो गया । आपके दर्शनों की अभिलाषा भी शान्त नहीं होती, प्रत्युत दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है । अतः अब मैं क्या करूं ! ॥५॥
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*दादू विरहनी दुख कासनि कहै, जानत है जगदीश ।*
*दादू निशदिन बिरही है, विरहा करवत शीश ॥६॥*
मेरा प्रभु मेरी व्यथा को जानता है, क्योंकि वह सर्वज्ञ है । अतः उनके आगे दुःख की गाथा कहना व्यर्थ है । अन्य कोई उनके समान मनुष्य भी नहीं कि उसके आगे अपना दुःख रोऊं । क्योंकि रोने पर भी वह दुःखहरण में समर्थ नहीं है । यह विरह भी कभी शान्त नहीं होता, प्रत्युत प्रतिदिन बढ़ता हुआ मेरे शिर पर कुठार की तरह प्रहार करता है ॥६॥
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*विरह विलाप*
*विरहनी रौवे रात दिन, झूरै मन ही मांहिं ।*
*दादू औसर चल गया, प्रीतम पाये नाहिं ॥८॥*
आँखों में आँसू भरकर अपने ही शरीर को तपाने वाला क्रोध करके कहती है- “मेरा क्या अपराध है, जिस से भगवान् मुझ पर प्रसन्न नहीं होते । इतना समय चला गया ! अवश्य ही मेरा कोई पूर्व जन्म का पापसमूह होगा ! धिक्कार है मुझको, जो प्रभु को प्राप्त न कर सकी ! मैं किसी अन्य को कुछ कह भी नहीं सकती । क्योंकि लिखा है-
“प्रेम दोनों प्रेमियों को प्रेम को प्रकाशित करने वाला दीपक है । हृदय में स्थित होकर प्रेम को प्रकाशित करता हुआ निश्चल होकर सुशोभित हो रहा है । यदि उसको मुख से कह दिया जाय तो बाहर जाकर वह बूझ जायगा या शान्त हो जायेगा, या फिर मन्द पड़ जायेगा ॥८॥”
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*दादू विरहनी कुरलै कुंज ज्यूं, निशदिन तलफत जाइ ।*
*राम सनेही कारणै, रोवत रैन विहाइ ॥९॥*
जैसे क्रौंच पक्षी अपने अण्डों को बार बार याद कर करुण स्वर से रोता है, वैसे ही यह वियोगिनी वृत्ति अपने प्रियतम प्रभु परमात्मा को याद करके दिनरात रोती हुई अपना समय व्यतीत करती है । क्योंकि रोने से दुःख हल्का हो जाता है । जैसे कहा भी है-
“कोई तालाब यदि ऊपर तक भर जाय तो उसकी यही प्रतिक्रिया है कि पानी को निकाल दिया जाय ।”
भागवत में भी लिखा है-
“हे कमलनयन ! मेरा मन आपके दर्शन के लिये ऐसा छटपटा रहा है जैसे नन्हे नन्हे चिड़िया के बच्चे घौसलें में ही अपनी माँ से चुग्गा लेने के लिये छटपटाते हैं, या जैसे गाय का बछड़ा सायंकाल अपनी माता की स्तनपान करने के लिये व्यथित होता है । या विदेश में गये पति से मिलने के लिये स्त्री का मन तरसता है ॥९॥”
(क्रमशः)
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