गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

विरह का अंग १०/१३

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
.
*पासैं बैठा सब सुणै, हमकों जवाब न देइ ।*
*दादू तेरे सिर चढै, जीव हमारा लेइ ॥१०॥*
वह भगवान् मेरे हृदय में ही रहता है । गीता में कहा है-
“भगवान् सब प्राणियों के हृदय में ही निवास करता है ।” वह बहरा भी नहीं है, सब सुनता है, जानता भी है; क्योंकि वह सर्वज्ञ है । श्रुति में कहा है-
“वह हाथ-पैर, आँख-कान, नाक वाला न होकर भी पकड़ता है, चलता है, देखता है, सुनता है, सूंघता है । वह सभी जानने योग्य पदार्थों को जानता है, लेकिन उसको कोई नहीं जानता ।”
ऐसा होता हुआ भी मेरी करुणापूर्ण वाणी तथा शरीर की दशा देखता-सुनता हुआ भी ‘दर्शन दूंगा’-ऐसी वाणी नहीं बोलता । अस्तु, मत बोलो ! मैं तो तुम्हारे ही अधीन हूँ । मेरा जीवन-मरण भी तुम्हारे अधीन है । मैं तो कुछ भी नहीं जानती-इस प्रकार वियोगिनी कहती है । किसी विद्वान् ने कहा है-
“हे स्वामिन् ! क्या तुम सो रहे हो अथवा क्या जगत् की रचना में व्याकुल हो रहे हो? या तुम मेरे प्रति निर्दय हो गये या पागल या स्वतन्त्र हो गये हो क्या? या फिर तुम मेरी तरह दीन-हीन पर कोई दया नहीं दिखाना चाहते? अथवा मेरे दुर्भाग्य से तुम गूंगे-बहरे बन गये हो कि तुम मुझे कुछ भी उत्तर नहीं देना चाह रहे हो?”
.
*सबको सुखिया देखिये, दुखिया नाहीं कोइ ।*
*दुखिया दादू दास है, ऐन परस नहीं होइ ॥११॥*
इस जगत् में सभी प्राणी सुखी हैं; क्योंकि वे खाते-पीते, खेलते-कूदते, सोते रहते हैं । केवल भगवान् का दास ही दुःखी है । वह न खाता है, न पीता है न खेलता-कूदता है न सोता है । यही सुखी-दुःखी के चिन्ह माने गये हैं । भगवान् के दास को यही दुःख रहता है कि अभी तक उसे भगवान् का साक्षात्कार नहीं हुआ ॥११॥
.
*साहिब मुख बोलै नहीं, सेवक फिरै उदास ।*
*यहु बेदन जिय में रहै, दुखिया दादू दास ॥१२॥*
सांसारिक भोगों में दोष दर्शन के कारण उनसे विरक्त होकर भगवान् का दास सर्व व्यापक ब्रह्म को खोजता है; किन्तु वह दर्शन भी नहीं देता । न वाणी से बोलता ही है । यही दुःख है कि वह किस कारण नहीं बोलता ! ॥१२॥
.
*पीव बिन पल पल जुग भया, कठिन दिवस क्यों जाइ ।*
*दादू दुखिया राम बिन, काल रूप सब खाइ ॥१३॥*
प्रभु के विना एक एक पल हजारों युगों के समान व्यतीत होता है तो यह महान् दिवस कैसे पूरा होगा !
कहा भी है-
“हे हरि ! तुम्हारे दर्शन के विना ये मेरे बुरे दिन कैसे बीतेंगे ! हे अनाथ बन्धो ! हे दया के सागर आपके दर्शन विना मैं इन्हें कैसे पूरा करूं ।”
और भी कहा है-
“आपके पलंग के पास बार बार आने जाने से मेरी यह रात्रि एक कल्प के समान बीती है । प्रातःकाल तो प्रातः कालिक क्रिया के बहाने बीत गया, अब मध्याह्नकाल भी आ गया जिसे प्रेमी के पास सो कर पूरा किया करती थी । हाय ! मेरे प्राणेश्वर अब भी नहीं पधारेंगे तो मुझ विरहिणी का यह दृढ़ निश्चय है कि मैं प्राण त्याग दूंगी ।”
राम के दर्शन के विना हम बहुत दुःखी हैं । सांसारिक पुरुष तो काल की तरह ग्रस रहे हैं । अतः मेरा जीना कैसे होगा? ॥१३॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें