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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*छिन बिछोह*
*दादू जब लग सुरति सिमटै नहीं, मन निश्चल नहीं होहि ।*
*तब लग पीव परसै नहीं, बड़ी विपति यहु मोहि ॥१९॥*
प्राणों से भी अधिक प्रिय भगवान् को निरुद्ध मन ही देख सकता है । मन के चंचल होने के कारण मैं उसे रोकने में असमर्थ हूँ । यों, मन के निरोध के अभाव में दर्शन कैसे हो सकता है । अतः मुझ पर ऐसी कृपा करो कि मेरा मन आपके दर्शन में समर्थ हो जाय । अन्यथा आपसे मिले विना महाविपत्ति ही है ॥१९॥
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*ज्यूं अमली के चित अमल है, सूरे के संग्राम ।*
*निर्धन के चित धन बसै, यों दादू के राम ॥२०॥*
जैसे मादक पदार्थ सेवन करने वाला मद्य का ही चिन्तन करता रहता है, शूर वीर युद्ध को ही विचारता रहता है, निर्धन धन की चिन्ता करता है; ऐसे ही मैं भगवान् राम का चिन्तन करता रहता हूँ । ऐसी भक्ति से भगवान् प्राप्त होते हैं । लिखा है-
“बार बार कृपण के धन की तरह भगवान् के नामों का विचार करो, विवेचन व चिन्तन करो ॥२०॥”
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*ज्यूं चातक के चित जल बसैं, ज्यूं पानी बिन मीन ।*
*जैसे चंद चकोर है, ऐसे दादू हरि सौं कीन ॥२१॥*
*ज्यूं कुंजर के मन वन बसै, अनल पंखी आकास ।*
*यूं दादू का मन राम सौं, ज्यूं वैरागी वनखंड वास ॥२२॥*
*भँवरा लुब्धी बास का, मोह्या नाद कुरंग ।*
*यों दादू का मन राम सौं, ज्यों दीपक ज्योति पंतग ॥२३॥*
श्रीदादूजी महाराज भक्ति की पुष्टि कर रहे हैं । जैसे चातक का चित्त स्वाति नक्षत्र की वर्षा के जलबिन्दु में, तथा मछली का मन जल में, हाथी का मन वन में, अनल पक्षी का मन आकाश में, वैरागी का मन वनखण्डों में, भ्रमर का मन पुष्पगंध में, मृग का मन नाद में, पतंगों का मन दीपक में वसता है; उसी प्रकार श्रीदादूजी महाराज कहते हैं, मेरा मन भगवान् में आसक्त है । इन दृष्टान्तों से श्री महाराज की अगाध भक्ति प्रतीत होती है । इसी को अनन्य भक्ति कहते हैं । गीता में लिखा है- “जो अनन्य मन से मेरा चिन्तन करते हैं उनको योगक्षेम मैं चलाता हूँ ।”
चतुर्थ पद्य में इन्द्रियासक्ति द्वारा प्रभु की आसक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं ।
(क्रमशः)

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