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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*विरह जागृति स्मरण विधि*
*साहिब जी के नांव में, भाव भगति विश्वास ।*
*लै समाधि लागा रहै, दादू सांई पास ॥१२८॥*
जो साधक भावभक्ति और दृढ़ विश्वास के साथ अपनी चित्तवृत्ति से भगवान् का स्मरण करता है तो उससे भगवान् दूर नहीं रहते । किन्तु भक्त समाधि में भगवान् का अनुभव करता है ॥१२८॥
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*साहिब जी के नांव में, मति बुधि ज्ञान विचार ।*
*प्रेम प्रीति स्नेह सुख, दादू ज्योति अपार ॥१२९॥*
प्रभु के नामस्मरण से मननात्मिका मति, निश्चय करने वाली बुद्धि एवं नित्यानित्य वस्तु का विचार पैदा होता है । पश्चात् प्रेमाभक्ति का उदय होता है । जिससे भगवान् के चरणों में प्रेम पैदा होता है । उसके बाद भगवान् से प्रेम करने वाला भक्त समत्वभाव से सर्वत्र स्थित परमात्मा को भजता है । तदनन्तर ब्रह्न के स्पर्श से पैदा होने वाले आत्यन्तिक आनन्द का अनुभव करता है । गीता में लिखा है-
हे अर्जुन ! सब भूतों में स्थित आत्मा को और आत्मा में स्थित सब भूतों को व्यापक देखता है । ऐसा योग से युक्त आत्मावाला सर्वत्र समदर्शन वाला हो जाता है । और वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगा हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनन्द का अनुभव करता है ॥१२९॥
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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।*
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥१३०॥*
इस लोक तथा परलोक के जितने भी भोग्य पदार्थ हैं वे सब हरिनाम जपने वाले साधक को अनायास ही मिल जाते हैं, यदि वह चाहता हो तो । अधिक क्या कहें, परन्तु वह तो मोक्षसुख को भी नहीं चाहता । फिर लौकिक सुखों के चाहने की बात तो बहुत दूर है ! भागवत में लिखा है-
हे ईश्वर ! आपके चरणकमलों की भक्ति करने वाले भक्त के लिये चारों पुरुषार्थों में कोई भी दुर्लभ नहीं है, फिर भी वे चाहते नहीं । केवल मेरे पुरुषार्थों की परस्पर वार्ता करते रहते हैं ।
स्वर्ग की इच्छा मनुष्य को दीन बना देती है । मोक्ष की इच्छा भी मनुष्य को क्लेश ही देती है । योग का अभ्यास तो सर्वथा नीरस है । अतः ऐसे प्रयासों से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं, मेरी रसना तो इन सब को त्यागकर ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ ऐसा गायन करती है ।
पापियों के सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने श्रीभगवान् का जो कृष्ण नाम है वह अकेला ही पर्याप्त है, क्योंकि नामस्मरण मात्र से भगवान् में घना प्रेम पैदा हो जाता है । जिससे उस भक्त के चरणों में मोक्षरूपी लक्ष्मी नाचती रहती है ।
भगवान् कृष्ण के नाना कीर्तनों में उनका नामस्मरण ही सबसे बड़ा कीर्तन है । क्योंकि यह नामस्मरण भगवान् के चरणारविन्दों में प्रेम सम्पत्ति पैदा कर देता है ।
प्रेम सम्पत्ति को पैदा करने में कृष्ण का नाम संकीर्तन ही सब से बलवान् साधन माना गया है । जैसे मंत्र में आकर्षण शक्ति होती है वैसे ही कृष्ण के नाम संकीर्तन में भगवान् को आकृष्ट करने की प्रबल शक्ति है ।
भक्त लोग भक्ति का यही फल बताते हैं कि भगवान् में अव्यभिचारी प्रेम पैदा हो जाय । कुछ भक्त लोग जो भक्तिरस में रंगे हुए हैं, वे प्रेम का सच्चा लक्षण यही बतलाते हैं कि कृष्ण नाम के कीर्तन में प्रेम पैदा हो जाय ॥१३०॥
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*जिसमें सब कुछ सो लिया, निरंजन का नांउँ ।*
*दादू हिरदै राखिए, मैं बलिहारी जांउँ ॥१३१॥*
निरन्जन निराकार के नामस्मरण से सिद्धावस्था में सब कुछ फल प्राप्त हो जाता है । अतः जिसने हरिनाम स्मरण कर लिया, मैं उसकी बलिहारी जाता हूँ ॥१३१॥
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॥ इति स्मरण के अंग का पं.आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥२॥
(क्रमशः)

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