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*दादू जरा काल जामण मरण, जहाँ जहाँ जीव जाइ ।*
*भक्ति परायण लीन मन, ताको काल न खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
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सुकृत संबल१ कीजिये, इहिं अवसर इहिं देह ।
जन रज्जब यहु सीख सुन, परमारथ कर लेह ॥५॥
इस शरीर के इसी समय में परलोक के मार्ग के लिये पुण्यरूप पाथेय१ संग्रह करो, यह शिक्षा सुनकर अवश्य परमार्थ कर लेना चाहिये ।
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गृह दारा सुत वित्त१ की, यह सब झूठी आथि२ ।
जन रज्जब रहसी इता, सुमिरण सुकृत साथि ॥६॥
घर, नारी, पुत्र और धन१ की धरोहर२ ये सभी मिथ्या हैं, प्राणी के साथ तो उसका किया हुआ हरि स्मरण और पुण्य इतना ही जायगा ।
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शरीर सहित सब जायगा, कहूं कहाँ लग और ।
जन रज्जब जगदीश भज, कुछ सुकृत को दौर१ ॥७॥
और कहाँ तक कहें, शरीर के सहित सभी नष्ट हो जायेंगे, इसलिये जगदीश्वर का भजन करते हुये कुछ सुकृत करने के लिये भी दौड़१ धूप करना चाहिये ।
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सकल पसारा१ झूठ का, झूठी जगकी आथि२ ।
रज्जब रहसी जीव के, सुमिरण सुकृत साथि ॥८॥
यह संमपूर्ण फैलाव१ मिथ्या माया का ही है, जगत की पूंजी२ भी मिथ्या ही है, जीव का किया हुआ हरि स्मरण और पुण्य ही जीव के साथ रहेगा ।
(क्रमशः)

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