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*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।*
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
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माल मुलक सब जायगा, सगे शरीर सहेत ।
जन रज्जब रहसी धरम, जो सु दिया हरि हेत ॥४९॥
शरीर के सहित सब माल, देश और सम्बन्धी सभी नष्ट हो जायेंगे, जो हरि के लिये प्रेमपूर्वक दिया गया है वह धर्म ही प्राणी के साथ रहेगा ।
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सौदा१ इहिं संसार में, सुकृत सम नहिं कोय ।
रज्जब सो किन२ कीजिये, जो आगे को होय ॥५०॥
इस संसार में सुकृत के समान कोई भी व्यापार१ नहीं है जो भविष्य के लिये सहायक होता है, वह सुकृत क्यों२ नहीं करते ? अवश्य करना चाहिये ।
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रज्जब करतां धर्म को, धुकपुक१ चित्त न आन ।
आगे को संबल२ इहै२, रे प्राणी सु प्रमान ॥५१॥
हे प्राणी ! धर्म कार्य करते समय संशयादि द्वारा चित्त में चंचलता१ मत आने दे, धैर्यपूर्वक यहाँ३ करेगा वही आगे के मार्ग का खर्च२ होगा, इसमें शास्त्र -संतों के सुवचन प्रमाण है ।
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रज्जब ढील१ न कीजिये, दासातन२ कर दास ।
सो सुकृत दीसै सबल, शिवरु३ शक्ति४ वश जास५ ॥५२॥
हे प्राणी ! देर१ मत कर दास्य२ भक्ति करके भगवान का दास बन, वह दास्य भक्ति रूप सुकृत इतना सबल है कि ब्रह्म३ और माया४ दोनों ही जिसके५ वश में रहते हैं ।
(क्रमशः)

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