🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग केदार ६(गायन समय सँध्या ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
१२६ - विरह विलाप । झपताल
मरिये मीत विछोहे, जियरा जाइ अँदोहे१ ॥टेक॥
ज्यों जल विछुरै मीना, तलफ तलफ जिव दीन्हा,
यों हरि हम सौं कीन्हा ॥१॥
चातक मरै पियासा, निशदिन रहे उदासा,
जीवै किहिं बेसासा ॥२॥
जल बिन कमल कुम्हलावै, प्यासा नीर न पावै,
क्यों कर तृषा बुझावै ॥३॥
मिल जनि४ विछुरो कोई, विछुरे बहु दुख होई,
क्यों कर जीवै जन सोई ॥४॥
मरणा मीत सुहेला२, विछुरन खरा दुहेला३,
दादू पीव सौं मेला ॥५॥
.
१२६ - १२९ में विरह पूर्वक विलाप दिखा रहे हैं - हम हमारे मित्र प्रभु के वियोग जन्य दु:ख से मर रहे हैं, हमारा मन शोक१ से व्याकुल हुआ जा रहा है ।
.
जैसे जल बिना मछी तड़प तड़प कर प्राण खो देती है, वैसी ही स्थिति हरि के वियोग ने हमारी कर दी है ।
.
जैसे चातक पक्षी स्वाति - बिन्दु बिना प्यासा मरता है और रात्रि दिन उदास रहता है, वैसी ही प्रभु बिना हमारी दशा है । हम किस के विश्वास पर जीवित रहें ।
.
जैसे जल बिना कमल मुरझा जाता है, वैसी ही प्रभु बिना हमारी दशा हो रही है । प्यासे को जल न मिलने पर उसकी प्यास कैसे मिट सकती है, वैसे ही प्रभु के मिले बिना हमारा क्लेश कैसे मिट सकता है ?
.
प्रभु से मिल कर किसी की भी वृत्ति उनसे अलग नहीं४ होनी चाहिये । कारण, वियोग से बहुत दु:ख होता है, फिर वह जन उस दु:ख से युक्त होकर कैसे जीवित रह सकता है ?
.
हे मित्र ! मरणा तो हमारे लिये सुगम२ है किन्तु आपका वियोग बड़ा दुखद३ है । अत: निरन्तर प्रभु से मिले हुये ही रहना चाहिये ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें