सोमवार, 2 दिसंबर 2019

= *सुकृत का अंग ९५(९/१२)* =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*दादू जिहिं घट दीपक राम का, तिहिं घट तिमिर न होइ ।*
*उस उजियारे ज्योति के, सब जग देखै सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
सुकृत सिंह हिं देखतों, कुकृत जाहीं कुरंग१ । 
ज्यों रज्जब रवि की किरण, तम तुंगनि२ ह्वै भंग ॥९॥ 
सिंह को देखकर मृग१ भाग जाता है, वैसे ही शुभ कर्मों को देखकर कुकर्म भाग जाते हैं । सूर्य की किरणों को देखकर महान अंधेरी वाली रात्रि२ नष्ट हो जाती है, वैसे ही पुण्य से पाप नष्ट हो जाते हैं । 
पुण्य प्रभाकर१ के उदय, पाप पुल२हिं ज्यों तार३ । 
मन वचन कर्म रज्जब कही, तामें फेर न सार ॥१०॥ 
जैसे सूर्य१ के उदय होने पर तारे३ छिप२ जाते हैं, वैसे ही पुण्य के उदय होने पर पाप भाग जाते हैं । यह हमारे मन वचन, कर्म के सार रूप बात कही है, इसमें बदलने का अवकाश नहीं है । 
धर्म सु काती१ कर्म की, पुण्य पिशुन है पाप । 
एक सु अंतक एक का, रज्जब रचे सु आप ॥११॥ 
धर्म कुकर्मो को काटने की कैंची१ है और पुण्य के लिये पाप दुष्ट है । परस्पर दोनों एक-एक के काल हैं, स्वयं प्रभु ने इनको ऐसा ही रचा है । 
रज्जब ताला पाप का, पुण्य कूंची कर राखि । 
जीव जड़या ऐसे खुले, साधु वेद की साखि ॥१२॥ 
पाप रूप ताला में जीव बंद है, उसमें पुण्य रूप कूंची रखकर फेरो ऐसा करने से वह खुल जायेगा । इसमें संत तथा वेद भी साक्षी देता है । 
(क्रमशः)

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