सोमवार, 2 दिसंबर 2019

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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११६ - ज्ञान । रूपक ताल
भाई रे, तब क्या कथसि गियाना, जब दूसर नाँहीं आना ॥टेक॥
जब तत्वहिं तत्व समाना, जहं का तहं ले साना ॥१॥
जहां का तहां मिलावा, ज्यों था त्यों होइ आवा ॥२॥
सँधे सँधि मिलाई, जहां तहां थिति पाई ॥३॥
सब अँग सब ही ठाँई, दादू दूसर नाँहीं ॥४॥
इति राग अडाणा समाप्त: ॥५॥पद ६॥
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अद्वैतावस्था में ज्ञानोपदेश देने का अवकाश नहीं रहता, यह कह रहे हैं, हे भाई ! जब हृदय में स्वस्वरूप से भिन्न भावना आती ही नहीं, तब उस अद्वैतावस्था को प्राप्त ज्ञानी क्या ज्ञान का कथन कर सकेगा ?
आत्मा जिस ब्रह्म का स्वरूप था, उसे विचार द्वारा साँसारिक भावनाओं से ऊपर लेकर ब्रह्म में मिला दिया ।
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(आत्म - तत्व ब्रह्म - तत्व में समा गया, ब्रह्म ज्ञान से जिस ब्रह्म का स्वरूपाँश आत्मा था, उसी में मिला दिया), पूर्व में जैसा था वैसा ही निर्विकार हो गया । 
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जो भेद रूप सँधि भास रही थी, वह अद्वैत रूप से मिल गई । जहां की तहां स्थिति प्राप्त कर ली । 
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जब सब ही अपने स्वरूप हैं और सब ही अपने स्थान हैं, तब कुछ भी कहना नहीं बनता ।
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इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग अडाणा समाप्त: ॥५॥
(क्रमशः)

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