मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग केदार ६(गायन समय सँध्या ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१२३ (गुजराती भाषा) राजमृगाँक ताल
पीव घर आवै रे, वेदन मारी१ जाणी रे ।
विरह सँताप कौण पर कीजै, कहूं छूँ दुख नी कहाणी रे ॥टेक॥
अंतरजामी नाथ मारा, तुज बिण हूं सीदाणी२ रे ।
मंदिर मारे केम३ न आये, रजनी जाइ बिहाणी रे ॥१॥
तारी बाट हूं जोइ थाकी, नैण निखूटा पाणी रे ।
दादू तुज बिण दीन दुखी रे, तूँ साथी रह्यो छे ताणी रे ॥२॥
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हे प्रभो । मेरी१ विरह व्यथा को जानकर, मेरे हृदय - घर में पधारिये । मैं अपना विरह दु:ख किसके आगे प्रकट करूँ ? अपने दु:ख की कथा आप को ही कहती हूं । 
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मेरे नाथ ! आप तो अन्तर्यामी हैं, अत: मेरे हृदय की अवस्था जानते ही हैं । मैं आप के बिना दुखी२ हूं । आप मेरे हृदय मंदिर में क्यों३ नहीं आते ? 
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यह मेरी आयु - रात्रि व्यतीत होती जा रही है, मैं आपका मार्ग देखते २ थक गई हूं और आप के दर्शनार्थ रोते २ मेरे नेत्रों का अश्रु - जल भी समाप्त हो गया है । आपके बिना मैं विरहनी अति दीन दुखी हो रही हूं, इतने पर भी आप मेरे साथ खेंचातानी कर रहे हैं, दर्शन नहीं देते, यह कहां तक उचित है ?
(क्रमशः)

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