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*द्वितीय भाग : शब्द*, *राग कान्हड़ा ४ (गायन समय रात्रि १२ से ३)*
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, राज. ॥
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११५ - चेतावनी । पँचमताल
भाई रे, यों विनशै सँसारा, काम क्रोध अहँकारा ॥टेक॥
लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥१॥
आपा पर अभिमाना, केता गर्व गुमाना ॥२॥
तीन तिमिर नहिं जाँहीं, पँचों के गुण माँहीं ॥३॥
आतमराम न जाना, दादू जगत दिवाना॥४॥
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तर्क पूर्वक सावधान कर रहे हैं, अरे भाई ! सँसारी प्राणी इस प्रकार नष्ट होते हैं, काम, क्रोध, अहँकार,
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लोभ, मोह, मैं और मेरापन, मद, अति मात्रा में मत्सर,
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अपने पराये का अभिमान, गुण - कलादि कितने ही प्रकार के गर्व, बल आदि का घमण्ड हृदय में रखते हैं और पँच ज्ञानेन्द्रियों के विषयों में अनुरक्त रहते हैं ।
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इससे मेला, तूला और लेशा अविद्या रूप तीन प्रकार का अँधकार नष्ट नहीं होता और त्रिविध अँधकार के न नष्ट होने से
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अपने आत्म - स्वरूप राम को न जानकर मायिक सुखों में पागल हुये रहते हैं, इसलिये बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
(क्रमशः)

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