शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

विरह का अंग १४/१८


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*दादू इस संसार में, मुझसा दुखी न कोइ ।* 
*पीव मिलन के कारणै, मैं जल भरिया रोइ ॥१४॥* 
सम्पूर्ण संसार में मैं ही सबसे अधिक दुःखी हूँ । इसीलिये भगवान् के दर्शनों के लिये नेत्रजल से पृथ्वी को सींचती हूँ । क्या करूं ! रोने के अतिरिक्त मैं कोई अन्य साधन भी नहीं जानती । लिखा है- 
“श्रीकृष्ण के विरह में एक एक निमेष युगों की तरह प्रतीत होता है । मेरे नेत्रों ने तो वर्षा ऋतु की तरह जल की झड़ी ही लगा दी । तथा अब तुझे यह संसार सूना-सूना सा दीखता है ॥१४॥” 
*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।* 
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥१५॥* 
इस मनुष्य जन्म में ही यदि उस भगवान् का दर्शन दुर्लभ हो गया तो वह दूसरे जन्मों में तो और भी दुर्लभ होगा ! उस के दर्शन बिना मैं सुखी नहीं हो सकता । अब कोई दूसरी औषधि भी नहीं है कि जिसके सेवन से मेरी दुःख निवृत्ति हो जाय । अर्थात् उसका दर्शन ही मेरे सुख का कारण है और वही मुझे दुर्लभ हो गया । अहो ! मैं कितना मन्दभागी हूँ ॥१५॥
*दर्शन कारण विरहनी, वैरागिन होवै ।* 
*दादू विरह बियोगिनी, हरि मारग जोवै ॥१६॥* 
हरि के दर्शन के लिये विरही भक्त भोगों से नितान्त उदासीन हो कर प्रतिक्षण हरि के आने के मार्ग को इस आशा से देखता रहता है कि न मालुम कौन से मार्ग से वे आ जाय । और न मालुम कब साक्षात्कार हो जाय ॥१६॥ 
*बिरह उपदेश* 
*अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन ।* 
*सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥१७॥* 
जल से वियुक्त मछली जैसे जल में जाने के लिये जल्दी करती है, क्योंकि वह जल के बिना जी नहीं सकती, ऐसे ही साधक भी विरही होकर विरहभक्ति से प्रभुदर्शन हेतु अश्रुपूरित नेत्रों से यदि हरिचरणों में विहार करें तो उसे हरिदर्शन अत्यन्त सुलभ हैं ॥१७॥ 
*राम बिछोही विरहनी, फिरि मिलन न पावै ।* 
*दादू तलपै मीन ज्यूं, तुझ दया न आवै ॥१८॥* 
हरि से वियुक्त प्रभु का भक्त प्रभु के अंगों का संग पाने के लिये, मछली की तरह, भगवान् के चरणों में लोटता रहता है; फिर भी हरि दया नहीं करते । हे करुणासिन्धो ! आपकी करुणा कहाँ चली गयी । हे भगवन् ! मेरी ऐसी दशा देखकर तो आप को दर्शन देना ही चाहिये ॥१८॥ 
(क्रमशः)

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