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*परमार्थ को राखिये, कीजे पर उपकार ।*
*दादू सेवक सो भला, निरंजन निराकार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
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परमारथ में पिंड दे, सो पृथ्वी पति होय ।
तिन रोमहुं राजा मिल हिं, नांहि अचरज कोय ॥२९॥
जो परमार्थ के लिये अपने शरीर को देता है, वह पृथ्वी का स्वामी होता है, उसके जितने रोम हों उतनी बार भी उसे राजा का पद प्राप्त हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं ।
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रज्जब रज१ मुख मेलिये, सोउ सहस गुण होय ।
सो छाजन२ भोजन साधु को, देत न शंको कोय ॥३०॥
धूलि१ में बीज डालते हैं, वह भी हजार गुणा हो जाता है, तब साधु को भोजन वस्त्र२ देते हुये शंका मत करो, वह अवश्य बढेगा ।
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खैर१ कहैं सतरह गुणी, दत्त२ सहस गुण लाह३ ।
रज्जब बोलै चूकि४ चकि५, जे चहु६ रोट्यों पतिशाह ॥३१॥
मुसलमान कहते हैं कि खैरात१ अर्थात दान२ की हुई वस्तु सत्तरह गुणी होकर मिलती३ है और हिन्दु कहते हैं कि दान की हुई वस्तु हजार गुणी होकर मिलती है किन्तु दोनों ही भूल५ से गलत४ कहते हैं, कारण तिमंगल को तो चार६ रोटी देने से ही सात जन्म तक बादशाह होना प्राप्त हो गया था ।
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जे आप उतर रथ देत हैं, परमारथ के प्यार ।
तो विविध भाँति वाहन मिलहिं, हय१ गय२ नर असवार ॥३२॥
जो आप रथ से उतर कर रथ को परमार्थ के लिये प्रेमपूर्वक देते हैं तब उसको नाना प्रकार के वाहन मिलते हैं, वे अश्व१, हाथी२ और मनुष्यों की पालकी आदि पर सवार होकर चलते हैं ।
(क्रमशः)

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