🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*बाबा, काची काया कौण भरोसा,*
*रैन गई क्या सोवे ।*
*दादू संबल सुकृत लीजे,*
*सावधान किन होवे ॥*
=================
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*सुकृत का अंग ९५*
.
रज्जब सुकृत शुक्ल पख१, आत्म अन्न कन पोष ।
कुकृत अंध२ अँधार निशि, भागे भ्रामक दोष ॥४५॥
कुकर्म अंधेरी रात्रि के समान अज्ञानी२ ही रखते हैं और सुकृत शुक्ल पक्ष१ की रात्रि के समान हैं, जीवात्मा रूप अन्न कणों का पोषण करता है और भ्रम में डालने वाले दोष जैसे चाँदनी रात्रि में नहीं रहते, वैसे ही सुकृत से भी भाग जाते हैं ।
.
रज्जब कुकृत काल तज, सुकृत समै१ सु आव ।
मनसा वाचा कर्मना, जो जीवण का भाव ॥४६॥
यदि जीवित रहने का भाव है तो मन, वचन, कर्म से कुकर्म रूप दुष्काल को छोड़कर सुकर्म रूप सुकाल१ में आ ।
.
खैर खजाना जीव कन१, पिंड पड़त पुण्य साथ ।
सो रज्जब किन कीजिये, धर्म आपणे हाथ ॥४७॥
खैरात किये हुये धन का खजाना जीव के पास१ ही रहता है, शरीर के गिरने पर भी पुण्य साथ ही रहता है वह धर्म अपने हाथ से क्यों नहीं करते ?
.
पिंड पड़े पुण्य ना पड़ै, प्रलय पचन१ नहिं होय ।
रज्जब संगी जीव का, सुकृत सिवा२ न कोय ॥४८॥
शरीर गिरता है पुण्य नहीं गिरता, पुण्य प्रलय में भी नष्ट१ नहीं होता, जीव का साथी सुकृत के बिना२ अन्य कोई भी नहीं है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें