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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग केदार ६(गायन समय सँध्या ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१२५ - विरह । राज विद्याधर ताल
माहरा रे वाहला ने काजे, हृदय जोवा१ ने (हूं) ध्यान धरूँ ।
आकुल थाये२ प्राण माहरा, कोने कही पर३ करूँ ॥टेक॥
संभारयो४ आये रे वाहला, वेहला५ एहों६ जोई ठरूँ७ ।
साथीजी साथा थई८ ने, पेली तीरे पार तरूँ ॥१॥
पिव पाखे९ दिन दुहेला जाये, घड़ी बरसाँ सौं केम१० भरूँ ।
दादू रे जन हरिगुण गाताँ, पूरण स्वामी ते वरूँ ॥२॥
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विरह दिखा रहे हैं - मेरे प्रियतम को देखने१ के लिये मैं हृदय में ध्यान करता हूं । उनके बिना मेरे प्राण व्याकुल हो२ रहे हैं, मैं इस विरह व्यथा को किसे कह कर दूर३ करूँ ।
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आप तो स्मरण४ करते ही भक्तों के आ जाते हैं । मैं इन६ मेरे प्रियतम के शीघ्र५ दर्शन करने पर ही शाँति७ पा सकूंगा । मेरे मित्रजी ! मैं आपके साथ होकर८, सँसार - सिन्धु को तैरते हुये, इसके परली पार पहुंच जाऊंगा ।
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प्रियतम के बिना९ मेरे दिन बड़े ही कठिन निकलते हैं । घड़ी तो वर्षों के समान लगती है, मैं अपनी आयु के दिन कैसे१० व्यतीत कर सकूंगा ? फिर भी कष्ट चाहे कितने ही हों, किन्तु मैं आपका जन तो आपके गुण - गान करते हुये आप पूर्ण प्रभु को ही स्वामी रूप से स्वीकार करूँगा ।
(क्रमशः)
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