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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= (७. कविता लक्षण. ६) =*
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*कक्का के वरन लघु षडी माहिं त्रिय,*
*सुरां मध्य पंच लघु अआदि समान है ।*
*युत लघु पूरब दीरघ करै आ ई ऊ ॠ,*
*लृ ए ऐ ओ औ अं अ: सु दीरघ बषान है ॥*
*दृषन चालीस और भूषण च्यारी सत,*
*पिंगल व्याकरण काव्य कोस सौं पिछांन है ।*
*जीतै पर सभा लषै बात पर मन हू की*
*सबही सराहै कवि सुन्दर कहांन है ॥६॥*
ककार आदि व्यन्जनों की द्वादशाक्षरी में अ, इ, उ, - इन तीन स्वरों से मिश्रित व्यन्जन लघु ही होते हैं । तथा स्वरों के मध्य अ, इ, उ, ॠ एवं लृ – ये पाँच स्वर तथा इन पाँच स्वरों से मिश्रित व्यन्जन भी लघु ही कहे जाते हैं । परन्तु संयुक्त व्यन्जन से पूर्व का हृस्व उक्त स्वर भी दीर्घ ही बोला जाता है । तब ये स्वर, आ, ई, ऊ, ॠ, लॄ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: - ये स्वर दीर्घ कहें जाते हैं ।
दोष तथा भूषण : काव्य में चालीस(४०) दोष तथा चार सौ भूषण कहे गये हैं । इन सबका विस्तृत ज्ञान पिंगलशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, काव्य शास्त्र, तथा कोष के ग्रन्थों से किया जा सकता है ।
इन सब का सुनिश्चित ज्ञान पर वादी किसी भी सभा में विजयी हो सकता है । श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं – ऐसे कवि की भी विद्वान् प्रशंसा करते हैं ॥६॥
(क्रमशः)

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