🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*समरथ सिरजनहारा, सो तेरे निकट गँवारा रे ॥*
*सकल लोक फिर आवै, तो दादू दीया पावै रे ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
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सकल करहु परि कर्ण के, कनक देन का राग ।
तो रज्जब पाया तिनहुं, हाथों ऊपरि दाग ॥३३॥
कर्ण को सभी के हाथों पर सुवर्ण देने का प्रेम था तभी उसने युद्धस्थल में अंत समय दांतों का सुवर्ण देकर भगवान से बिना दागी हुई पृथ्वी पर दाग का वर माँगा था जब बिना दागी पृथ्वी नहीं मिली तब भगवान ने अपने हाथ पर उसको दाग दिया था ।
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परमारथी पन्नगपति१, सृष्टि भार शिर लीन ।
तो रज्जब प्रभु पहुमि२ पर, नाम तिनहुं के कीन ॥३४॥
परमार्थी शेषजी१ ने सृष्टि का भार शिर पर धारण कर रक्खा है, तभी भगवान ने उनका नाम पृथ्वी२ पर प्रसिद्ध किया है ।
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ब्रह्माण्ड बड़ा परमारथी, तो आयु बड़ी दी रब्ब१ ।
ये पिण्ड प्राण सब स्वारथी, बेगि मरे सो अब्ब ॥३५॥
बाह्माण्ड महान् परमार्थी है इसलिये ईश्वर१ ने इसको बड़ी आयु दी है और ये प्राणधारी शरीर सब स्वार्थी है सो अब भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
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अरिल -
नेकी१ ऊपर धन्य बदी२ धृक्कार सु बोलिये ।
घट घट ब्रह्म बसंत, तिनहु मुख पाट सु खोलिये ॥
पुण्य पाप का फेर, सु पलटा आईया ।
परि हां देखो वकृत्र३ वदंति४, सु श्रवण सुनाइया ॥३६॥
प्रति शरीर में साक्षी रूप से ब्रह्म बसते हैं, वे ही उन शरीरों के मुख कपाट को खोलकर भलाई१ पर धन्यवाद और बुराई२ पर धिक्कार बुलाते हैं । पुण्य का बदला धन्यवाद और पाप का बदला धिक्कार आता है, देखो, लोग मुख३ से बोलते४ हैं सो श्रवण से सुनने में ही आता ही है ।
(क्रमशः)
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