🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर ।*
*दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥*
=================
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*सुकृत का अंग ९५*
.
रज्जब धरती धर्म की, बाहो बीज विभूति ।
मेघ महर मीरा१ करै, आवै साख सु सुति ॥४१॥
धर्म रूप पृथ्वी में संपति रूप बीज बाहो, फिर विश्व के नेता१ भगवान रूप मेघ दया करेंगे तथा परमार्थ रूप खेती अच्छी उपजेगी ।
.
षट् दर्शन दल दुआ१ के, सती पुरुष के संग ।
रज्जब विघ्न न व्यापही, आडा सुकृत अंग२ ॥४२॥
योगी, जंगम, सेवड़े , बौद्ध, सन्यासी, शेष इन छ: प्रकार के तथा अन्य साधुओं के दल का आशिर्वाद१ और सतीपुरुष के संग से विघ्न नहीं सताते । कारण - ये विध्नों को रोकने के लिये सुकृत के स्वरूप२ को आडा लगा देते हैं ।
.
रज्जब पावक पाप की, जालै पिंडरू प्राण ।
परम पुण्य पाणी परसि, शीतल साधु सुजान ॥४३॥
पाप रूपी अग्नि शरीर और प्राणी दोनों को जलाता है । परम पुण्य रूप जल के स्पर्श से बुद्धिमान साधु ही शीतल रहते हैं ।
.
कुकृत कर्म कु आगि में, सब जग जलि मठ१ होय ।
रज्जब सुकृत समुद्र मधि, तिसे नहीं डर कोय ॥४४॥
किये हुये कुकर्म रूप अग्नि में जल कर सब जगत काला१ हो रहा है किन्तु जो सुकृत रूप समुद्र में स्थित है उसे उक्त अग्नि का कोई डर नहीं है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें