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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= (७. कविता लक्षण. २५) =*
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*छप्पय*
*नख शिख शुद्ध कवित्त पढ़त अति नीकौ लग्गे ।*
*अंग हीन जो पढै सुनत कविजन उठि भग्गै ॥*
*अक्षर घटि बढि होइ षुडावत नर ज्यौं चल्लै ॥*
*मात घटै बढि कोइ मनौ मतवारौ हल्लै ॥*
*औढेर काँण सो तुक अमिल,*
*अर्थहीन अंधो यथा ॥*
*कहि सुन्दर हरिजस जीव है,*
*हरिजस बिन मृत कहि तथा ॥२५॥*
कोई बिद्वान कवि जब आदि से अन्त तक परिशुद्ध(सर्वांग सम्पन्न) कविता पाठ करता है तो वह विद्वज्ज्नों को अतिशय प्रिय लगता है । इसके विपरीत, मुर्ख जन जब सभा में कविता पाठ करने लगते हैं तो उसे सुनकर विद्वान् जन सभा से उठकर भागने को सन्नद्ध हो जाते हैं ।
जब किसी कविता पाठ में अक्षर घटते या बढ़ते हुए सुने जाते हैं तो उसे सुनकर ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई लंगड़ा(चरणविहीन) पुरुष चल रहा हो ।
मात्राविहीन कविता पाठ ऐसा लगता है मानो कोई मद पीया हुआ पुरुष उन्मादवश हिल डुल रहा है ॥
उस कविता की तुकबन्दी में कोई तुक(अक्षरों की समरसता) मेल न खाती हो तो वह ऐसी लगती है मानो कोई काणां(एकाक्षी) पुरुष चल रहा है तथा अर्थहीन कविता ऐसी लगती है मानो कोई अन्धा चल रहा है ॥
*महात्मा श्रीसुन्दरदासजी* कहते हैं – हरि का भजन ही जीवन है, यह जीव जिसमें नहीं है वह(कविता) मृतक के तुल्य है । अर्थात् हरिगुण कीर्तन विहीन कविता विद्वानों द्वारा मृतक(निर्जीव) ही कही जाती है ॥१॥
(क्रमशः)
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