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*सूधा मारग साच का, साचा हो सो जाइ ।*
*झूठा कोई ना चलै, दादू दिया दिखाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
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आतम जननी ऊपजै, सुकृत सुत मणिमथ्य१ ।
जम ज्वाला मात हु टली, राज काज समरथ्य२ ॥१७॥
जैसे माता से राज - कार्य करने में समर्थ२ पुत्र होता है तब माता लौकिक कष्टों से मुक्त हो जाती है, वैसे ही आत्मा रूप जननी सुकृत रूप शिरोमणी१ पुत्र उत्पन्न करती है तब यम की यातना रूप ज्वाला से बच जाती है ।
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खैर१ खैर२ माँहि रहै, या परि और न खूब३ ।
रज्जब कर रंजिश४ नहीं, महरवान५ महबूब६ ॥१८॥
भलाई१ करने से अच्छा२ ही रहता है, इससे अधिक और कोई भी श्रेष्ठ३ नहीं है । किसी से भी बैर४ मत कर सब पर कृपालु५ और सबका प्रेमी६ होकर निवास कर ।
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पापी की पीड़ा टलै, लेत पुण्य का नाम ।
सो सुकृत किन कीजिये, रज्जब अज्जब ॥१९॥
पुण्य का नाम लेने से भी पापी का दु:ख हट जाता है, सुकृत ऐसा अदभुत काम है, वह सुकृत क्यों न किया जाय ? अवश्य करना चाहिये ।
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चंद सूर गगन हिं गहै१, दान पुण्य महि२ थान ।
रज्जब देणा अति भला, जेहि छूटे शशि भान३ ॥२०॥
चन्द्र-सूर्य का ग्रहण१ आकाश में होता है और दान-पुण्य पृथ्वी२ स्थल में किये जाते है, उनसे चन्द्र-सूर्य३ कष्ट छूटते हैं । अत: दान देना अति भला है ।
(क्रमशः)

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