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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग मारू(मारवा) ७, (गायन समय साँयकाल ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१४५ - विरह । अड्डुताल
क्यों विसरे मेरा पीव पियारा,
जीव की जीवन प्राण हमारा ॥टेक॥
क्यों कर जीवै मीन जल बिछुरै,
तुम बिन प्राण सनेही ।
चिन्तामणि जब कर तैं छूटै,
तब दुख पावै देही ॥१॥
माता बालक दूध न देवै,
सो कैसे कर पीवै ।
निर्धन का धन अनत भुलाना,
सो कैसे कर जीवै ॥२॥
वरषहु राम सदा सुख अमृत,
नीझर निर्मल धारा ।
प्रेम पियाला भर भर दीजै,
दादू दास तुम्हारा ॥३॥
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विरह दिखा रहे हैं, मेरे प्रियतम स्वामी ! मुझे क्यों भूल रहे हैं ? आप तो हमारे जीव के जीवन तथा प्राण ही हैं ।
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जैसे जल से अलग होकर मच्छी जीवित नहीं रह सकती, वैसे ही हे प्राण - स्नेही ! आपके बिना हम कैसे जीवित रह सकते हैं ? जैसे किसी के हाथ में आई हुई चिन्तामणि हाथ से गिरकर खोई जाय, तब उस प्राणी को तो दु:ख ही होता है, वैसे ही आपके अलग होने से हमको क्लेश ही होता है ।
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यदि माता बच्चे को दूध न दे तो वह कैसे पान कर सके ? वैसे ही यदि आप दर्शन न दें तो हम दर्शनामृत कैसे पान कर सकेंगे ? निर्धन को धन मिला हो और वह किसी अन्य स्थान में रखकर भूल जाय तो सुखपूर्वक कैसे जीवित रहेगा ? वैसे ही हमारे परम - धन ! आपके बिना हम कैसे सुखपूर्वक जीवित रह सकते हैं ?
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राम ! अपने स्वरूप - झरने से सदा सुखप्रद दर्शनामृत की निर्मल धार वर्षाओ और प्रेम - प्याले में भर २ कर मुझे दो, मैं आपका दास हूं, अत: अधिकारी हूं ।
(क्रमशः)
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