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*दया धर्म का रूंखड़ा, सत सौं बधता जाइ ।*
*संतोंष सौं फूलै फलै, दादू अमर फल खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
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षट् दर्शन षट् खेत भल, जगतजिमी मधि जान ।
ग्यारस बारस बाहिये, निपजे एक समान ॥१२९॥
जगत रूप पृथ्वी में योगी, जंगम, सेवड़े , बोद्ध, सन्यासी, शेष ये छ: खेत अच्छे हैं ऐसा जान, इनमें ग्यारस को या बारस को बाहो दोनों दिन बोया हुआ का फल बराबर ही उत्पन्न होगा ।
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धारा तीरथ धार तलि, देश दिसंतर नाँहिं१ ।
त्यों रज्जब सुकृत भजन, समझ देख मन माँहिं ॥१३०॥
आकाश की जल धारा तीर्थ की धार के नीचे देश देशान्तरों में कहीं भी स्नान१ कर सकते हो, वैसे ही मन में समझ कर देखो, पुण्य और भजन कहीं भी कर सकते हो ।
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जीव जिमी सौं जात है, जप जल उभय अकाश ।
रज्जब चढत न चखि चढै१, उतरत प्रकट प्रकाश२ ॥१३१॥
जीव का जप और पृथ्वी का जल ये दोनों प्रभु और आकाश में चढते हैं तब तो नेत्रों से नहीं दीखते१ किन्तु उतरते हैं तब प्रकट रूप से दीखते हैं अर्थात जल वर्षता हुआ दीखता२ है और जप का फल मिलता है तब वह भी प्रत्यक्ष दीखता है ।
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अवनि१ भेंट आकाश को, अंभ२ अलोप३ सु जाय ।
तापरि वरं४ भू५ व्योम ह्वै, विपुल६ सु बर्षै आय ॥१३२॥
पृथ्वी१ की जल२ रूप भेंट आकाश को छिपी३ हुई जाती है, उस पर आकाश वरदाता४ होता५ है तब बहुत६ जल वर्ष कर पृथ्वी पर आता है, वैसे ही जीव की सुकृत रूप भेंट प्रभु के पास छिपी हुई जाती है, उस पर प्रभु वरदाता होकर उसका फल बहुत देते हैं ।
(क्रमशः)
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