शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

विरह का अंग ९९/१०२


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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग-३)*
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*बिरह उपजनि* 
*पहली आगम विरह का, पीछे प्रीति प्रकाश ।* 
*प्रेम मगन लै लीन मन, तहाँ मिलन की आस ॥९९॥* 
आचार्य अब प्रभुदर्शन के लिये साधनक्रम बता रहे हैं । पहले विरह की उत्पत्ति तब प्रेमा भक्ति होती है । भक्तिरसायनामृत में-भिष्मादिभक्तों ने विष्णु में जो अनन्य ममता दिखायी उसी को ‘भक्ति’ कहा है । वह ममता प्रेम से भरी होनी चाहिये । भागवत में भी लिखा है- 
अपने प्रिय भगवान् के नामसंकीर्तन से अनुराग पैदा होता है उस अनुराग से चित्त द्रवीभूत हो जाता है । उससे भक्त कभी तो उच्च स्वर से हँसता है, कभी रोता है, कभी चिल्लाता है, लोकव्यवहारातीत होकर कभी नाचता है, कभी उन्मत्त होकर गाने लगता है ।” 
इन्हीं लक्षणों से प्रेमाभक्ति मानी जाती है । उसके बाद, उसी भक्ति में डूबा हुआ भक्त हरिगुणानुवाद गाकर मुक्त हो जाता है । कहा भी है- 
“अभिसन्धि से रहित मन की प्रेम से व्याप्त अनवच्छिन्न गति ही ‘भक्ति’ कहलाती है ।” 
ऐसी भक्ति से भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं । 
नारदपञ्चरात्र में भी लिखा है- 
“हे पार्वती ! हरि के भाव में उन्मत्त हुआ भक्त अपने सुख-दुःख को भी नहीं जानता, तथा परमानन्द में मस्त रहता है ॥” 
इसी अभिप्राय से श्रीदादूजी महाराज ने भी “तहाँ मिलन की आस” कह कर अनन्य भक्ति का ही प्रतिपादन किया है ॥९९॥ 
*विरह वियोगी मन भला, सांई का वैराग ।* 
*सहज संतोषी पाइये, दादू मोटे भाग ॥१००॥* 
भगवान् के दर्शनों के लिये जब साधक विषयों से मुक्त स्वाभाविक सन्तोषी, निर्मलमन एवं विरह व्यथा से पीड़ित होता है, तथा उसे भगवान् की प्राप्ति होती है । जिस साधक ने भगवान् का साक्षात्कार कर लिया वह लोक में धन्य है । भक्तिरसामृतसिन्धु में लिखा है- 
पहले श्रद्धा, फिर साधु-संगति, बाद में भजन करना चाहिये, उससे अनर्थों की निवृत्ति हो जाती है । तदन्तर श्रद्धा, तथा श्रद्धा से प्रेम भाव बढ़ता है । प्रेमभाव पैदा करने के लिये साधकों का यह क्रम अच्छा है । उसको धन्यवाद है जिसके चित्त में नूतन प्रेम पैदा होता है । यह प्रेम वाणी से नहीं कहा जा सकता, किन्तु मुद्रा से जाना जाता है ॥१००॥ 
*दादू तृषा बिना तन प्रीति न ऊपजै,* 
*सीतल निकट जल धरिया ।* 
*जन्म लगै जीव पुणग न पीवै,* 
*निरमल दह दिस भरिया ॥१०१॥* 
*दादू क्षुधा बिना तन प्रीति न ऊपजै,* 
*बहु विधि भोजन नेरा ।* 
*जनम लगैं जीव रती न चाखै,* 
*पाक पूरि बहु तेरा ॥१०२॥* 
इन साखीवचनों में भगवान् श्रीदादूदेव ने भगवत्प्राप्त्यर्थ उत्कण्ठा का वर्णन किया है । जैसे विना जल की प्यास के, कोई शीतल जल से भरे निकटस्थ सरोवर पर भी नहीं जाता, न कोई उससे एक बूंद जल ही पीता है । ऐसे ही भूख के विना कोई भी, सुन्दर व रुचिकर व्यन्जन होते हुए भी उसे नहीं खाता ।
(क्रमशः)

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