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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग रामकली ८ (गायन समय प्रभात ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१९९ - सँत समागम प्रार्थना । दादरा
निरंजन नाम के रस माते, कोई पूरे प्राणी राते ॥टेक॥
सदा सनेही राम के, सोई जन साचे ।
तुम बिन और न जानहीं, रँग तेरे ही राचे ॥१॥
आन न भावै एक तूँ, सति साधु सोई ।
प्रेम पियासे पीव के, ऐसा जन कोई ॥२॥
तुमहीं जीवन उर रहे, आनन्द अनुरागी ।
प्रेम मगन पिव प्रीतड़ी, लै तुम सौं लागी ॥३॥
जे जन तेरे रंग रंगे, दूजा रंग नांहीं ।
जन्म सुफल कर लीजिये, दादू उन माँहीं ॥४॥
सँतों का समागम प्राप्त होने की प्रार्थना कर रहे हैं - जो कोई प्राणी पूर्ण रूप से निरंजन राम के नाम - चिन्तन रस में अनुरक्त होकर मस्त हैं और सदा राम - स्वरूप के प्रेमी हैं, वे ही जन सच्चे हैं
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और हे प्रभो ! जो आपके बिना अन्य किसी को भी सत्य नहीं जानते, आपकी भक्ति रूप रँग में ही रत हैं
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उनको अन्य कुछ भी प्रिय नहीं लगता, एक आप ही प्रिय लगते हैं, वे सच्चे साधु हैं । जिसके मन इन्द्रियादि एक मात्र प्रभु - प्रेम के ही प्यासे हों । ऐसा भक्त कोई विरला ही होता है ।
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उसके हृदय में आप ही जीवन रूप से रहते हैं । वह आपके स्वरूपानन्द का ही प्रेमी होता है । अपने प्रियतम आपके प्रेम में मग्न रहता है, उसकी वृत्ति आप से ही लगी रहती है ।
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इस प्रकार जो भक्त आपके भक्ति - रँग में रँगे हुये हैं, उनके हृदय पर दूसरा रँग नहीं चढ़ता । हमारा भी निवेदन है कि - उन सँतों के समागम में रहकर अपने जीवन को सफल करें ।
(क्रमशः)
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