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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग)
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*दादू सो वेदन नहीं बावरे, आन किये जे जाइ ।*
*सब दुख भंजन सांइयाँ, ताहि सौं ल्यौ लाइ ॥६५॥*
हे साधक ! किसी भी जीव का जन्म-मरणरूपी दुःख आत्म ज्ञान के बिना निवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह दुःख अज्ञानजन्य है । अतः तुम सर्वदुःखभंजक परमात्मा में अपने मन को लगावो । वह ही तुम्हारे दुःख को दूर करेगा । भागवत में लिखा है कि-
“परमेश्वर से विमुख पुरुष को माया से भगवतस्वरूप का ज्ञान नहीं होता, प्रत्युत उसे मैं देह हूँ ऐसा अभिमान होता है । तब दूसरे के अभिनिवेश से भय होता है । अतः गुरु, देवता, इष्ट को मानने वाले बुद्धिमान मनुष्य को निश्चय ही भक्ति सहित ईश्वर को भजना चाहिये ।”
भगवान् अरु विक्रम के चरणारविन्द के नखरुपी मणि के प्रकाश से जिसका ताप नष्ट हो गया है फिर हृदय में दुःख कैसे पैदा हो सकता है? जैसे चन्द्रमा के उदय होने पर सूर्य का ताप नहीं रहता ।
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*दादू औषध मूली कुछ नहीं, ये सब झूठी बात ।*
*जे औषध ही जीविये, तो काहे को मर जात ॥६६॥*
हे साधक ! रसायन आदि औषध के सेवन से कोई अमर नहीं होता । वे सब मिथ्या है । जो वैद्य कहते हैं कि रसायन सेवन से निरोग हो जाता है वे सब मिथ्यावादी हैं । क्योंकि वैद्यों को भी जन्मते, मरते देखते हैं और रसायन सेवन करने वालों की भी मृत्यु होती है, अतः ब्रह्म ज्ञान से ही अमर भाव को तथा निरोगता को प्राप्त होता है । भागवत में कहा है कि-
हे सौम्य ! गुण कर्म से बंधे हुए पुरुषों को संसार की ही गति मिलती है । जो जीव गुण कर्मों से उत्पन्न हुए गुण को जीत लेवे तो वह भक्ति योग करके निष्ठा से मेरे को प्राप्त होता है ।
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*॥पतिव्रत॥*
*मूल गहै सो निश्चल बैठा, सुख में रहै समाइ ।*
*डाल पान भ्रमत फिरै, वेदों दिया बहाइ ॥६७॥*
सर्व जगत् का मूल कारण ब्रह्म है क्योंकि श्रुति में ब्रह्म को ही जगत् का अभिन्न निमित्तोपादन कारण बतलाया है । जो उस ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे ब्रह्मानन्द में मग्न रहते हैं । जो वेदों में प्रतिपादित अर्थवाद है जिसका केवल स्तुति-निन्दा में तात्पर्य माना जाता है । अर्थात् अर्थवाद वाक्यों में कर्म की स्तुति या निन्दा की गई है । उस अर्थवाद से प्रतिपादित स्वर्ग सुखों में जो आसक्त होकर देवताओं की उपासना करते हैं, वे संसार रूपी दुःख में पचते रहते हैं । जैसे लिखा है कि जैसे सोमरस का यज्ञ में पान करने वाला अमर हो जाता है । जो चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले हैं, वे स्वर्ग को प्राप्त कर लेते हैं । गीता में भी कहा है कि-
हे अर्जुन ! सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने वाले स्वर्ग को ही श्रेष्ठ बतलाने वाले इससे बढ़कर और कुछ नहीं है, ऐसे अविवेकी जन जन्म रूप कर्म फल को देने वाली और भोग ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये बहुत सी क्रियाओं के विस्तार वाली वाणी को कहते हैं । उनकी ब्रह्म में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं हो सकती ।
(क्रमशः)
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