सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ६२/६४

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*चरणहुँ अनत न जाइये, सब उलटा मांहि समाइ ।* 
*उलट अपूठा आप में, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥६२॥* 
*दादू दूजे अंतर होत है, जनि आने मन मांहि ।* 
*तहाँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥६३॥* 
सत्संगति को छोड़ कर कुसंग में मत जावो, क्योंकि कुसंग से पतन का होना निश्चित है । अपनी इन्द्रियों से भी ब्रह्म चिन्तन के अलावा किसी का भी चिन्तन मत करो । क्योंकि दूसरे के ध्यान से ब्रह्म चिन्तन में अन्तराय(विघ्न) हो सकता है । अतः अद्वैत चिन्तन ही श्रेयस्कर है । गीता में-विषयों का ध्यान करने से मन विषयों में आसक्त हो जाता है और विषय संग से मन में इच्छा पैदा होती है । इच्छा से उसकी पूर्ति न होने से क्रोध, क्रोध से संमोह और उससे स्मृति का नाश तथा स्मृति नाश से बुद्धि का नाश और बुद्धि नाश से मृत्यु निश्चित ही है । इसी भाव से भागवत में-विषयों के ध्यान से विषयों में आसक्ति और मेरे ध्यान से मन मेरे में विलिन हो जाता है । 
परमात्मा में मन की स्थिति हो जाने पर धीरे धीरे कर्म नष्ट होने लगते हैं । कर्मों के नाश से सत्वगुण की बुद्धि सत्व से रजोगुण तमोगुण का नाश होने से इन्धन रहित अग्नि की तरह अन्तःकरण शान्त हो जाता है । आत्मा में अवरुद्ध चित्त वाले साधक को बाहर भीतर का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता जैसा कि बाण बनाने वाले को पास से सेना सहित राजा के जाने पर भी उसको सेना का पता ही नहीं चला, क्योंकि उसका मन बाण बनाने में लगा हुआ था । 
*॥भ्रम विधूंसण॥* 
*भ्रम तिमिर भाजै नहीं, रे जिय आन उपाइ ।* 
*दादू दीपक साज ले, सहजैं ही मिट जाइ ॥६४॥* 
हे साधक ! इस असत्य प्रपञ्च में सत्यत्व बुद्धि अज्ञानजन्य है । जीव ब्रह्म के भेद की निवृत्ति तीर्थाटन दान ब्रत आदि अन्य साधनों से नष्ट नहीं होती । किन्तु “तत्त्वमसि” आदि वाक्यजन्य ज्ञान से जो ब्रह्मात्मैकाकारवृत्ति से जब अविद्या का नाश होगा, तब सूर्योदय के समकाल रात्रि के अन्धकार की निवृत्ति की तरह स्वयं ही भेदबुद्धि नष्ट हो जायगी । अज्ञानजन्य वस्तु का ज्ञान से ही नाश संभव है । 
कहा है कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है । अविद्या अति दुर्बल है । शब्द की शक्ति अचिन्त्य है । अतः शब्द अर्थ के सम्बन्ध को ग्रहण किये बिना ही जैसे दूसरों के द्वारा सुषुप्ति में जगाने पर निद्रा को त्याग कर सोता हुआ जाग जाता है । वहां पर जागृत की तरह शब्द को कोई नहीं जानता, फिर भी ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार “अहं ब्रह्मास्मि” इस वाक्य से ब्रहमज्ञान होने पर अविद्या के नाश से आत्मा का ज्ञान हो जाता है । जैसे रोग की निवृत्ति के बाद औषधि का सेवन निवृत्त हो जाता है उसी तरह ज्ञान होने से ही अविद्या स्वयं निवृत्त हो जाती है । 
यह आत्मज्ञान केवल श्रवण मात्र से प्राप्त नहीं होता क्योंकि अविद्या की वासना बड़ी प्रबल है । न केवल उपदेश श्रवण से ज्ञान होता है, जैसे विरोचन ने बहुत उपदेश श्रवण किया फिर भी उसको अविद्या के नाश न होने से ज्ञान नहीं हुआ । लिखा है श्रुति में- 
“यह आत्मा परब्रह्म परमात्मा-प्रवचन से, बुदधि से, बहुत सुनने से नहीं प्राप्त होता । किन्तु जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । क्योंकि यह परमात्मा उसके लिये अपने को यथार्थ रूप से प्रगट कर देता है ।” 
यह आत्मा बलहीन पुरुषों से भी प्राप्त नहीं होता न तप के द्वारा, किन्तु जो इन सब साधनों का यत्न करता है, उसको यह परमात्मा प्राप्त होता है । तब वह साधक उसके धाम में प्रविष्ट हो जाता है । अतः ज्ञान के लिये यत्न करो । (क्रमशः)

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