बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

सुमति कुमति का अंग १०४*(१३/१६)* =


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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*प्रकट दर्शन परसन पावै,*
*परम पुरुष मिलि मांहि समावै ॥*
*ऐसा जन्म नहीं नर आवै,*
*सो क्यों दादू रतन गँवावै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ram Gopal Das Tapasvi
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*सुमति कुमति का अंग १०४*
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तेरू१ तोयं२ तिर चलै, अतैरू जल बूड३ । 
कुट४ पंखी पृथ्वी पड़या, सपंखां जाय ऊड५ ॥१३॥ 
तैराक१ जल२ से तैर जाता है और तैराक न हो तो डूब३ जाता है वैसे ही ज्ञान रूप सुमित वाला संसार से पार हो जाता है अज्ञानी संसार में ही रहता है । पंख कटा४ हुआ पक्षी पृथ्वी पर पड़ा रहता है और पंखों सहित उड़५ जाता है वैसे ही अज्ञानी संसार में रहता है और ज्ञानी ज्ञान द्वारा ब्रह्म में मिल जाता है । 
अचेत१ अंग२ लोहा मई, छित३ छाड़ै नहिं अंग४ । 
रज्जब सो रज त्याग दे, चेतन५ चुंबक संग ॥१४॥
अज्ञानी१ लोह खंड२ के समान है, जैसे लोह का टुकड़ा पृथ्वी३ को नहीं त्यागता, वैसे ही अज्ञानी शरीराध्यास को नहीं त्यागता किन्तु जैसे चुंबक पत्थर के संग से लोह खंड धूली को त्याग देता है, वैसे ही ज्ञानी५ के संग से अज्ञानी शरीर४ के अध्यास को त्याग देता है । 
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रज्जब नरक नहीं निष्काम को, ता पर करहु न वाद । 
देखा दुर्मति धी१ बिना, दोजख२ नहीं दमाद३ ॥१५॥
निष्कामी को नरक नहीं मिलता, उसके विषय में यह विवाद न करो - उसे नरक मिलेगा । जैसे लड़की१ बिना जँवाई३ नहीं मिलता, वैसे ही दुर्बुद्धि के बिना नरक२ नहीं मिलता । 
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स्वर्ग स्थाने सुख नहीं, दुख नहिं दोजख२ माँहिं । 
रज्जब शीतल तपति जीव, आप दशा१ ले जाँहिं ॥१६॥
स्वर्ग के स्थान में सुख नहीं है और नरक२ में दुख नहीं है, जीव आप ही अपनी स्थिति१ शीतल और तप्त बनाकर ले जाते हैं अर्थात प्राणियों के कर्मानुसार ही स्वर्ग में सुख और नरक में दुख मिलता है ।
(क्रमशः)

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