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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग)
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*कोटि वर्ष क्या जीवना, अमर भये क्या होइ ।*
*प्रेम भक्ति रस राम बिन, का दादू जीवन सोइ ॥८४॥*
भक्त को प्रेमाभक्ति तथा राम दर्शनों के बिना करोड़ों वर्षों के लिये भागने को दीर्घ जीवन भी दे दिया जाय तो वह उसके लिये व्यर्थ ही है । स्वर्गीय सुख भी उसके लिये व्यर्थ ही है । क्योंकि वह उनको चाहता ही नहीं है । कठ में नचिकेता यमराज को कह रहे हैं कि-
हे यमराज जिन भोगों का आपने वर्णन किया है वे सब क्षणभंगुर हैं । और मनुष्यों की इन्द्रियों की शक्ति को जीर्ण कर देते हैं । इसके सिवाय आयु चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो वह थोड़ी ही मानी जाती है । अतः यह आपके रथ वाहन और अप्सराओं के नाच गान आपके ही पास रहें । मुझे नहीं चाहिये ।
मनुष्य को कभी भी धन से तृप्त नहीं किया जा सकता है और धन तो आपके दर्शनों से मिल ही जायगा और जब तक आपका शासन रहेगा तब तक हम जीते ही रहेगें । अतः इन सबको क्या मांगना है । मेरे लायक वर तो आत्म ज्ञान ही है ।
यह मनुष्य जीर्ण होने वाला है तथा मरणधर्मा है, इस रहस्य को जानने वाला मनुष्य लोक का निवासी ऐसा कौन होगा जो कि बुढापे से रहित न मारने वाले आप जैसों का संग पाकर भी स्त्रियों के सौन्दर्य क्रीडा आमोद प्रमोद का बार बार ध्यान करता हुआ बहुत काल तक जीवित रहने में प्रेम करेगा । भागवत में-
हे राजन इन्द्रियजन्य सुख दुःख ये दोनों ही प्राणियों को स्वर्ग नरक में भी मिलते हैं । अतः बुद्धिमान मनुष्य इनकी इच्छा न करे ।
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*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥८५॥*
हे साधक ! तू कामना को त्याग दे । क्योंकि कामना दुःखदायी होती है । मैं सगुण से निर्गुण हो जाऊं, जीव से ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाऊं, सब ही तेरा मान सन्मान करें, ऐसी कामना भी नहीं करनी चाहिये । किन्तु निष्काम होकर ब्रह्म का ध्यान करें । अथवा पाचों ज्ञानेन्द्रियों को और मन को जीतकर जो सांसारिक कामना को त्याग कर, जो मेरे को निर्गुण ब्रह्म मान कर मेरा ध्यान करता है तो वह जीव भाव से ब्रह्म भाव में चला जाता है ।
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*घट अजरावर ह्वै रहै, बन्धन नांही कोइ ।*
*मुक्ता चौरासी मिटै, दादू संशय सोइ ॥८६॥*
पूर्वोक्त रीति से निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करे तो जीव के बन्धन करने वाले सारे कर्म नष्ट हो जाय और उसका शरीर भी देवादिकों की तरह पूजनीय हो जाय, संशय की निवृत्ति से जन्म मरण रहित होकर जीवन्मुक्त हो जाता है । लिखा है कि उस ब्रह्म को जान लेने से हृदयग्रंथी नष्ट हो जाती और सारे संशय दूर हो जाते हैं और कर्मों के क्षीण हो जाने से वह मुक्त हो जाता है ।
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*॥लांबि रस॥*
*निकटि निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।*
*दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥८७॥*
हे साधक ! जब तक तेरी ब्रह्माकारवृत्ति ब्रह्म में लीन नहीं होवे तब तक तू ब्रह्माभ्यास को मत छोड़, किन्तु निष्काम होकर ब्रह्म परायण होता हुआ अखण्ड राम-रस का पान कर । वेदान्तसन्दर्भ में लिखा है कि-
“जैसे जल में डाला हुआ लवण गलकर जल रूप ही भासता है, जल से अलग होकर नहीं दीखता । ऐसे ही ब्रह्माकारवृत्ति भी ब्रह्म से मिलकर अद्वितीय ब्रह्मरूप ही भासती है । अलग नहीं ।”
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*॥प्रचै पतिव्रत॥*
*सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोइ ।*
*सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥८८॥*
*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥८९॥*
द्वैतवादी सालोक्य सामीप्य सारुप्य, सायुज्य भेद से चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं । परन्तु राम भक्ति का रसिक भक्त तो चारों प्रकार की मुक्ति को भी नहीं चाहता है । फिर अष्ट सिद्धि नव निधि को की तो इच्छा उसकी हो ही नहीं सकती । क्योंकि वे राम के प्यारे राम को छोड़कर अन्य से उनका कोई प्रयोजन ही नहीं रहता ।
(क्रमशः)
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