सोमवार, 2 मार्च 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ८९/९५

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥आन लग्न विभचार॥*
*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥८९॥*
*स्वारथ सेवा कीजिये, ताथैं भला न होइ ।*
*दादू ऊसर बाहि कर, कोठा भरै न कोइ ॥९०॥*
*सुत वित मांगैं बावरे, साहिब सी निधि मेलि ।*
*दादू वे निष्फल गये, जैसे नागर बेलि ॥९१॥*
*फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।*
*दादू सो सेवक नहीं, खेलै अपना दाव ॥९२॥*
*सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥९३॥*
सकामी भक्त किसी कामना को लेकर भगवान् को भजते हैं, लेकिन कामना से भजने वाले का कल्याण नहीं होता । कामना से की गयी सेवा उषरभूमि में डाले हुए बीज की तरह निष्फल ही है । परमात्मा जैसी निधि को प्राप्त करके भी जो मूर्ख भगवान् से स्त्री पुत्र धन आदि की याचना करते हैं उनका जीवन नागरबेली की तरह निष्फल ही चला जाता है । दुराराध्य हरि की आराधना करके जो सांसारिक सुख या पारलौकिक सुखों की भगवान् से याचना करते हैं, वे अज्ञानी हैं । कर्म फल प्राप्त होने पर वे हरि को भी कभी कभी भूल जाते हैं । अहो ! इस कलियुग में प्रायः ऐसे ही भक्त होगें जो अपना मतलब बनाकर भगवान् को भूल जायेंगे । भागवत में कहा है कि-स्त्री पुत्र धन मन्दिर वसुधा हाथी कोष विभूति इनके अतिरिक्त और भी वस्तु चाहते हैं वे सब पदार्थ चंचल है । मनुष्य की आयु क्षणभंगुर है । अतः जीव को इस जीवन में उनसे कितना प्यार प्राप्त हो सकता है और वे पदार्थ भी अनित्य है । पुण्य की कहीं अधिकता कहीं न्यूनता है, वे भी निर्मल नहीं है । अतः जिसमें कभी भी दूषण देखने सुनने में नहीं आवे, ऐसे भगवान् वासुदेव का अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये तुम सब भजन करो । कामना वाले कर्म से पुरुष जिस सुख के लिये कामों की चाहना करता है, वह देह तो पराया है । क्षणभंगुर है । कभी प्राप्त हो जाते हैं कभी न हो जाते हैं । स्त्री, पुत्र, घर, धन, राज्य, भण्डार, हाथी, मंत्री, भृत्य यह देह से दूर होते हुए ममता के स्थान है । इन से क्या लाभ होना है । जो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं । जो आत्मा अव्यक्त अविनाशी आनन्द का महासमुद्र है उसको तुच्छ समझना, जो सुख अनर्थकारी और विनाशी है । देह से ही पैदा होते हैं और अज्ञान से सुखदायी प्रतीत होते हैं । परमेश्वर के सामने स्त्री पुत्र धनादि कुछ भी नहीं है । अतः जिसके धर्म अर्थ काम मोक्ष आश्रित हैं, उसी श्री हरि परमात्मा को भजो ।
उस भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर कौन सा ऐसा पदार्थ है कि जो नहीं मिलता । तथा स्वयं ही जो मानव को प्राप्त होने वाले हैं उनको भगवान् से क्या मांगना? अतः निष्काम भाव से भगवान् के चरणों को भजो ।      
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*॥सुमिरण नाम महात्म॥*
*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥९४॥*
*दादू सांई को संभालतां, कोटि विघ्न टल जांहि ।*
*राई मन बैसंदरा, केते काठ जलांहि ॥९५॥*
जो शरीर मन से निष्काम भाव से सर्वात्माभगवान् को जो सृष्टि के बनाने वाले हैं, उनको भजते हैं, ऐसे भक्त दुर्लभ हैं । जैसे छोटा सा अग्नि का कण करोडों मण लकड़ी के ढेर को जला देता है वैसे ही हरि नाम का स्मरण करने वाले भक्तों के करोड़ों जन्मों की पाप राशि हरि स्मरण से नष्ट हो जाती है । भागवत में भी कहा है कि-
दुष्ट चित वाला भी यदि हरि को भजता है तो हरि उसके पापों को नष्ट कर देते । जैसे बिना इच्छा के भी अग्नि का स्पर्श होने पर वह अग्नि जला देती है ।
(क्रमशः)

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