रविवार, 1 मार्च 2020

*२९. दिग्विजयी का पराभव*

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू पद जोड़ै साखी कहै, विषय न छाड़ै जीव ।*
*पानी घालि बिलोइये तो, क्यों करि निकसै घीव ॥*
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*२९. दिग्विजयी का पराभव*
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विद्यार्थी तो मान-अपमान से दूर ही रहते हैं, उन्हें मान-अपमान की कुछ भी परवाह नहीं रहती। चाहे विद्यार्थी सभी शास्त्रों को पढ़ चुका हो, जब तक वह पाठशाला में विद्यार्थी बना है, तब तक वह छोटे-से-छोटे विद्यार्थी से भी समानता का ही बर्ताव करेगा। विद्यार्थी-विद्यार्थी सब एक-से। इसीलिये विद्यार्थियों से भी किसी को उद्वेग नहीं होता।
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इसी कारण विद्यार्थियों के आग्रह करने पर महामानी लोक विख्यात दिग्विजयी पण्डित भी विद्यार्थियों के समीप ही बैठ गये। निमाई पण्डित ने अपना वस्त्र उनके लिये बिछा दिया। दिग्विजयी के सुखपूर्वक बैठ जाने पर सभी विद्यार्थी चुप हो गये। सभी ने शास्त्रार्थ बन्द कर दिया।
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हँसते हुए दिग्विजयी बोले- ‘भाई, तुम लोग चुप क्यों हो गये, कुछ शास्त्र-चर्चा होनी चाहिये।’ इतने पर भी सब चुप ही रहे। सभी विद्यार्थी धीरे-धीरे निमाई के मुख की ओर देखने लगे। कुछ प्रसंग चलने के निमित्त दिग्विजयी ने निमाई पण्डित से पूछा- ‘तुम किस पाठशाला में पढ़ते हो?’
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निमाई इस प्रश्न को सुनकर चुप हो गये, वे कुछ कहने ही को थे कि उनके समीप बैठे हुए एक योग्य छात्र ने कहा- ‘ये यहाँ के विख्यात अध्यापक निमाई पण्डित हैं।’ प्रसन्नता प्रकट करते हुए दिग्विजयी ने निःसंकोचभाव से उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘ओहो ! निमाई पण्डित आपका ही नाम है? आपकी तो हमने बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है।
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आप तो यहाँ के वैयाकरणों में सिरमौर समझे जाते हैं। हाँ, आप ही कोई व्याकरण की पंक्ति सुनाइये।’ हाथ जोड़े हुए नम्रतापूर्वक निमाई पण्डित ने कहा- ‘यह तो आप-जैसे गुरुजनों की कृपा है, मैं तो किसी योग्य भी नहीं। भला, आपके सामने मैं सुना ही क्या सकता हूँ, मैं तो आपके शिष्यों के शिष्य होने के योग्य भी नहीं।
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आपने संसार को अपनी विद्या-बुद्धि से दिग्विजय किया है। आपके कवित्व की बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। यह छात्र-मण्डली आपके कवित्व के श्रवण करने के लिये बड़ी उत्सुक हो रही है। कृपा करके आप ही अपनी कोई कविता सुनाने की कृपा कीजिये।’ यह सुनकर दिग्विजयी पण्डित हँसने लगे।
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पास के दो-चार विद्यार्थियों ने कहा- ‘हाँ, महाराज ! हम लोगों की इच्छा को जरूर पूर्ण कीजिये। हम सभी लोग बहुत उत्सुक हैं आपकी कविता सुनने के लिये।’ अब तक दिग्विजयी को नदिया में अपनी अलौकिक प्रतिभा और लोकोत्तर कवित्व-शक्ति के प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त ही नहीं हुआ था। उसे प्रकट करने का सुअवसर समझकर उन्होंने कुछ गर्व मिली हुई प्रसन्नता के साथ कहा- ‘तुम लोग जो सुनना चाहते हो, वही सुनावें।’
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इस पर निमाई पण्डित ने धीरे से कहा- ‘कुछ भगवती भागीरथी की महिमा का ही बखान कीजिये जिससे कर्ण भी पवित्र हों और काव्यामृत का भी रसास्वादन हो।’ इतना सुनते ही दिग्विजयी धारा-प्रवाह से गंगा जी के महत्त्व के श्लोक बोलने लगे। सभी श्लोक नवीन ही थे, वे तत्क्षण नवीन श्लोकों की रचना करते जाते और उन्हें उसी समय बोलते जाते।
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उन्हें नवीन श्लोक बनाने में न तो प्रयास करना पड़ता था, न एक श्लोक के बाद ठहरकर कुछ सोचना ही पड़ता था। जैसे किसी को असंख्य श्लोक कण्ठस्थ हों और वह जिस प्रकार जल्दी-जल्दी बोलता जाय, उसी प्रकार दिग्विजयी श्लोक बोल रहे थे। सभी विद्यार्थी विस्मितभाव से एकटक होकर दिग्विजयी की ओर आश्चर्यभाव से देख रहे थे।
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सभी के चेहरों से महान आश्चर्य- अद्भुत संभ्रम-सा प्रकट हो रहा था, उन्होंने इतनी विद्या-बुद्धिवाला पुरुष आज तक कभी देखा ही नहीं था। विद्यार्थियों के भावों को समझकर दिग्विजयी मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होते जाते थे और दूने उत्साह के साथ चमक और अनुप्रासयुक्त श्लोकों को सुमधुर कण्ठ से बोलते जाते थे।
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एक घड़ी भी नहीं हुई कि वे सौ से अधिक श्लोक बोलकर चुप हो गये। घाट पर सन्नाटा छा गया। गंगा जी का कलरव बंद हो गया, मानो इतनी उतावली गंगा माता भी दिग्विजयी के लोकोत्तर काव्य-रस से प्रवाहित होकर उसे अपने प्रवाह में मिलाने के लिये कुछ काल के लिये ठहर गयी हो।
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उस नीरवता को भंग करते हुए मधुर और गम्भीर स्वर में निमाई पण्डित बोले- ‘महाराज ! हम सब लोग आज आपकी अमृतमयी वाणी सुनकर कृतार्थ हुए। हमने ऐसा अपूर्व काव्य कभी नहीं सुना था, न आप-जैसे लोकोत्तर कवि के ही कभी दर्शन किये थे। आपके काव्य को आप ही समझ भी सकते हैं। दूसरे की क्या सामर्थ्य है, जो ऐसे सुललित काव्य को यथावत समझ ले। इसलिये इनमें से किसी एक श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष हम और सुनना चाहते हैं।’
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कुछ गर्व के साथ हँसते हुए दिग्विजयी ने कहा- ‘केशव की कमनीय कविता में दोष तो दृष्टिगोचर हो ही नहीं सकते। हाँ, व्याख्या कहो तो कर दूँ। बताओ किस श्लोक की व्याख्या चाहते हो’ यह बात दिग्विजयी ने निमाई पण्डित को युक्ति से चुप करने के ही लिये कह दी थी। वे समझते थे मेरे सभी श्लोक नवीन हैं, मैं जल्दी-जल्दी में उन्हें बोलता गया हूँ, ये उनमें से किसी को बता ही न सकेंगे, इसलिये यह बात यहीं समाप्त हो जायगी। किन्तु निमाई भी कोई साधारण पण्डित नहीं थे।
(क्रमशः)

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