卐 सत्यराम सा 卐
ज्ञान लहर जहाँ थैं उठै, वाणी का परकास ।
अनुभव जहाँ थैं उपजे, शब्दैं किया निवास ॥२९॥
सो घर सदा विचार का, तहाँ निरंजन वास ।
तहँ तूँ दादू खोजि ले, ब्रह्म जीव के पास ॥३०॥
जहँ तन मन का मूल है, उपजे ओंकार ।
अनहद सेझा शब्द का, आतम करै विचार ॥३१॥
भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।
तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥३२॥
एक ठौर सूझै सदा, निकट निरन्तर ठाउँ ।
तहाँ निरंजन पूरि ले, अजरावर तिहिं नाउँ ॥३३॥
साधु जन क्रीड़ा करैं, सदा सुखी तिहिं गाँव ।
चलु दादू उस ठौर की, मैं बलिहारी जाँव ॥३४॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें