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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ ९. चितावणी कौ अंग)
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*एका एकी राम सों, कै साधु का संग ।*
*दादू अनत न जाइये, और काल का अंग ॥१२॥*
हे साधक ! तू केवल परमात्मा का ही भजन कर और किसी का भी संग मत कर । क्योंकि श्रीमद्भागवत में लिखा है कि अपनी आत्मा में क्रीडा करता हुआ आत्मा से ही प्रेम एवं आत्मवान् होकर जितेन्द्रिय साधक पृथ्वी पर अकेला ही रमता रहे । क्योंकि बहुतों के संग में कलह हो जाता है । दो के साथ रहने में सांसारिक बातचीत होने लगती है । अतः भिक्षुक को अकेला ही रहना चाहिये । जैसे नारी के हाथ में अनेक चूडियां हो तो वे आवाज करती हैं, परन्तु अकेली नहीं बजती ।
सिद्धि प्राप्ति के लिये भी साधक को अकेला ही रहना चाहिये । क्योंकि सिद्धियाँ उसको अकेला देखकर नहीं छोड़ती और कभी नष्ट भी नहीं होती ।
अकेला ही पैदा होता और अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने पाप पुण्य को भोगता है । अतः साधक को अकेला ही रहना चाहिये, यदि देखा जाय तो संग सर्वदा वर्ज्य है । यदि अकेला नहीं रहा जाय तो फिर महात्माओं का संग करना चाहिये, सत्संग ही संसाररूपी रोग की औषधि है । श्री भगवान् शंकारचार्य जी लिखते हैं कि-
संग करो तो सत्पुरुषों का करो । भगवान् की दृढ़ भक्ति करो । ईश्वर का पूजन करो । काम की बुद्धि को त्याग दो । प्रतिदिन विद्वानों का संग करो और उनके पादुका की सेवा करो ।
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*दादू तन मन के गुण छाड़ि सब, जब होइ नियारा ।*
*तब अपने नैनहुं देखिये, प्रगट पीव प्यारा ॥१३॥*
जीवात्मा जब हिंसा आदि शरीर के धर्मों को काम क्रोध आदि मानस विकारों को त्याग कर देह से अपने आपको भिन्न समझने लगता है तब वह अपने प्रिय ब्रह्म का साक्षात्कार करता है । उस समय उसका सारा भेद निवृत्त हो जाता है । उपदेशसाहस्त्री में लिखा है कि-
दृष्टा, दृश्य और इनका दर्श(यानी ज्ञान) यह सब भ्रम, जीव कल्पित है । ज्ञान से भिन्न दृश्य है ही नहीं । जैसे जागने पर स्वप्न के भ्रम स्वयं ही निवृत्त हो जाते हैं । अतः ज्ञानी को अपना स्वरूप सर्वत्र दीखता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी महाराज लिख रहे हैं कि “तब अपने नैनहुं देखिये परगट पीव प्यारा” ।
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*दादू झांती पाये पसु पिरी, अंदरि सो आहे ।*
*होणी पाणे बिच्च में, महर न लाहे ॥१४॥*
*दादू झांती पाये पसु पिरी, हाणे लाइ न बेर ।*
*साथ सभौई हल्लियो, पोइ पसंदो केर ॥१५॥*
हे साधक ! तुम्हारा प्यारा परमात्मा तेरे अन्तःकरण में तेरे पास ही विराजता है । अन्तर्मुख वृत्ति से तू उसको देख और परमेश्वर की कृपा का अनुभव कर । अब विलम्ब मत कर तेरे साथी(इन्द्रियाँ) सभी चले गये हैं । अब इस संसार में क्या देखता है? परमेश्वर के बिना तेरा कोई नहीं है । अपने भ्रम से व्यर्थ में ही तू क्यूं दुःखी हो रहा है?
सर्ववेदान्तसार संग्रह में कहा है कि-
सूर्य कुछ भी कर्म नहीं करता और न करवाता है । अपने अपने स्वभाव के अनुसार इन्द्रियाँ कर्म कर रही हैं, प्रत्यगात्मा तो सूर्य की तरह निष्क्रिय उदासी नहीं है । देहादिकों की प्रवृत्ति स्वभावानुसार हो रही है । माया से मोहित चित्त वाले अज्ञानी प्राणी आत्मा तत्व के स्वरूप को जाने बिना ही आत्मा में कर्तृत्व भौक्तृत्व आदि अनात्म धर्मों का आरोप कर देते हैं । आत्मा तो असंग निष्क्रिय चैतन्य स्वरूप है । जैसे दूरस्थ मेघों के कारण चन्द्र में भ्रम से गति का आरोप करते हैं वैसे ही आत्मरुपी चन्द्र में अज्ञानरूपी मेघ के कारण अज्ञानी पुरुष यह सब कुछ आत्मा का कार्य है ऐसा मिथ्या आरोप करते हैं, तथा दुःखी होते हैं ।
चितावणी का अंग समाप्तः ॥९॥ साखी १५॥
(क्रमशः)
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