गुरुवार, 5 मार्च 2020

चितावणी कौ अंग ६/११

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ९. चितावणी कौ अंग) 
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*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।* 
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥६॥* 
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं करि चित्त ।* 
*यह अनहद जहाँ थैं ऊपजै, खोजो तहाँ ही नित्त ॥७॥* 
*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।* 
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥८॥* 
हे साधक ! तुम असावधान मत रहो । किन्तु अविद्या निद्रा को त्याग कर चेतन ब्रह्म में अपने चित्त को लगाओ । गीता में लिखा है कि- 
संपूर्ण प्राणियों के लिये जो निशा की तरह अविद्या निशा हैं । उससे जितेन्द्रिय पुरुष जागा हुआ है । अर्थात् अविद्या को त्याग कर ब्रह्म में स्थित है और जिस अविद्या निद्रा में जागता हुआ सारा संसार व्यवहार कर रहा है, उस में ज्ञानी सो रहे हैं । अर्थात् वे ज्ञानी व्यवहारातीत हैं । अतः व्यवहारातीत होकर जहां अनाहत चक्र में अनाहद नाद सुनाई पड़ता है वहीँ पर ब्रह्म को खोजो, अवश्य दर्शन देगा । हे साधक ! कुछ चेत, इस असत्य व्यवहार में क्यों उलझा हुआ है अर्थात् इसमें क्यों अनुराग कर रहा है । यह यद्यपि शास्त्रविहित है तथापि तुझे नहीं तार सकेगा । अतः ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करो । वह ही तुझे संसार से पार लगाने वाला है । वेदान्तसंदर्भ में बतलाया है कि ज्ञान क्या है, और कैसे होता है? आत्मा अनात्म के विवेक हो ही ज्ञान कहते हैं । जब गुरु शिष्य को आत्मा अनात्मा का विवेक करके बतलाता है तब शिष्य शब्द ब्रह्म को पार कर जाता है । गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! तू देह नहीं है न मन, न प्राण, न बुद्धि, क्योंकि ये सब विकारवान् और विनाशशील है, जैसे घड़ा दृश्य होने से विनाशी है । 
केवल विशुद्ध ज्ञान निर्विशेष निरंजन परम आनन्दस्वरूप एक अद्वितीय है वह ही तू है । ऐसा जो अद्वय ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है । तुम उसको प्राप्त करो । अन्यथा तुम्हारा संसार से निस्तारण नहीं हो सकेगा । 
*दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ ।* 
*जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥९॥* 
हे साधक ! हरि का भजन कर । भजन का साधन जो हरि नाम है उसको मत छोड़ । यहां पर सदा कोई नहीं रहा, अवश्य यहां से जाना होगा । अतः अभी से उस प्रभु के साथ प्रीति करले । 
*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।* 
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥१०॥* 
यह तेरा, यह मेरा, इस भाव को त्याग दो । यह तेरा यह मेरा ऐसे विचार तो हलके विचार वालों के होते हैं । जो महान् चित्त वाले हैं उनके लिये तो सारा संसार ही कुटुम्ब है । अतः सत्पुरुषों की संगति से तेरे मेरे भाव को दूर करो । भगवान् की भक्ति करो । काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता । प्रतिदिन जा रहा है । युवा अवस्था भी अति चंचल है । जो-जो भोग पदार्थ हैं, वे, सब दुरन्त दुःख के देने वाले हैं । भाई बन्धु सब बांधने वाले हैं । भोगों को तो तुम महा रोग ही समझो । तृष्णा मृगतृष्णा की तरह मिथ्या है । अपनी इन्द्रियां ही शत्रु है । अपना बैरी आप ही है । आप अपने आप को मार रहा है । चींटी से लेकर ब्रह्मापर्यन्त सब ही भूत जातियाँ तुच्छ ही है । यह देह भी केवल दुःख के लिये ही है । सर्वथा अनात्मा होते हुए भी अपने को आत्मा मानने का चमत्कार दिखला रहा है, क्षण में ही आनन्दित हो जाता है और क्षण में दुःखी हो जाता है । देह के समान नीच शोचनीय तथा गुणहीन कोई भी पदार्थ नहीं है । ऐसा ज्ञान प्राप्त करके अपने आपको जगाओ । 
*बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह ।* 
*दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥११॥* 
यह शरीर दुर्लभ है, बार-बार प्राप्त नहीं होता । नारायण की प्राप्ति इसी में होती है, इसी से इस का महत्त्व है और यह अमौलिक है । अनन्त पुण्यों से मिला है । इसके द्वारा नारायण को प्राप्त करके शान्त बन जावो । हे साधक ! तू नारायण स्वरूप है । भ्रान्ति से सिद्ध जीव भाव को त्याग दे । स्वतः सिद्ध माया रहित निजरूप है । उसको याद कर । ईश्वर का भजन कर । तू कर्ता भोक्ता सुखी दुःखी संसारी जीव नहीं है । किन्तु तीनों अवस्थाओं से अतीत् गुणातीत, शब्दातीत ब्रह्म ही है । ऐसा जान कर सुखी हो जावो । लिखा है कि यह मनुष्य बड़ा ही दुर्लभ है और वैसे यह क्षणभंगुर है। इस शरीर से वैकुण्ठनाथ का दर्शन भी दुर्लभ ही है ।
(क्रमशः)

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