गुरुवार, 5 मार्च 2020

*‘सुरधुनी के तट पर'*

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*दादू हरि सरवर पूरण सबै, जित तित पाणी पीव ।* 
*जहाँ तहाँ जल अंचतां, गई तृषा सुख जीव ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)* 
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* 
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ 
१८७९ ई. के भाद्रोत्सव के समय केशव श्रीरामकृष्ण को फिर निमन्त्रण देकर बेलघर के तपोवन में ले गए थे-१५ सितम्बर सोमवार और फिर २१ सितम्बर को कमलकुटीर के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए ले गए । इस समय श्रीरामकृष्ण के समाधिस्थ होने पर ब्राह्मभक्तों के साथ उनका फोटो लिया गया । श्रीरामकृष्ण खड़े खड़े समाधिस्थ थे । हृदय उन्हें पकड़कर खड़ा था । २२ अक्टूबर को महाष्टमी-नवमी के दिन केशव ने दक्षिणेश्वर में जाकर उनका दर्शन किया । 
२९ अक्टूबर १८७९ बुधवार को शरद पूर्णिमा के दिन के एक बजे के समय केशव फिर भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने गए थे । स्टीमर के साथ सजी-सजायी एक बड़ी नौका, छः अन्य नौकाएँ, और दो छोटी नावें भी थीं । करीब अस्सी भक्तगण थे, साथ में झण्डा, फूल-पत्ते, मृदंग-करताल, भेरी भी थे । हृदय अभ्यर्थना करके केशव को स्टीमर से उतार लाया-गाना गाते गाते । 
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गाने का मर्म इस प्रकार है- ‘सुरधुनी के तट पर कौन हरि का नाम लेता है, सम्भवतः प्रेम देनेवाले निताई आए हैं ।’ ब्राह्मभक्तगण भी पंचवटी से कीर्तन करते करते उनके साथ आने लगे, ‘सच्चिदानन्दविग्रहरुपानन्दघन ।’ उनके बीच में थे श्रीरामकृष्ण-बीच बीच में समाधिमग्न हो रहे थे । इस दिन सन्ध्या के बाद गंगाजी के घाट पर पूर्णचन्द्र के प्रकाश में केशव ने उपासना की थी । 
उपासना के बाद श्रीरामकृष्ण कहने लगे, तुम सब बोलो, ‘ब्रह्म-आत्मा-भगवान्’, ‘ब्रह्म-माया-जीव-जगत’, ‘भागवत-भक्त-भगवान्’ । केशव आदि ब्राह्मभक्तगण उस चन्द्रकिरण में भागीरथी के तट पर एक स्वर से श्रीरामकृष्ण के साथ साथ उन सब मन्त्रों का भक्ति के साथ उच्चारण करने लगे । श्रीरामकृष्ण फिर जब बोले, “बोलो, ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव’, तो केशव ने आनन्द से हँसते हँसते कहा, “महाराज, इस समय इतनी दूर नहीं । यदि हम ‘गुरु-कृष्ण-वैष्णव’ कहें तो लोग हमें कट्टरपन्थी कहेंगे !” श्रीरामकृष्ण भी हँसने लगे और बोले, “अच्छा, तुम(ब्राह्म) लोग जहाँ तक कह सको उतना ही कहो ।” 
कुछ दिन बाद १३ नवम्बर १८७९ ई. को कालीपूजा के बाद राम, मनोमोहन और गोपाल मित्र ने दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया । 
१८८० ई. में एक दिन ग्रीष्मकाल में राम और मनोमोहन कमलकुटीर में केशव के साथ साक्षात्कार करने आए थे । उनकी यह जानने की प्रबल इच्छा हुई कि केशवबाबू की श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में क्या राय है । उन्होंने केशवबाबू से जब यह प्रश्न किया तो उन्होंने उत्तर दिया, “दक्षिणेश्वर के परमहंस साधारण व्यक्ति नहीं हैं, इस समय पृथ्वी भर में इतना महान् व्यक्ति दूसरा कोई नहीं है । वे इतने सुन्दर, इतने असाधारण व्यक्ति हैं कि उन्हें बड़ी सावधानी के साथ रखना चाहिए । देखभाल न करने पर उनका शरीर अधिक टिक नहीं सकेगा । इस प्रकार की सुन्दर मूल्यवान् वस्तु को काँच की आलमारी में रखना चाहिए ।” 
इसके कुछ दिनों बाद १८८१ ई. के माघोत्सव के समय पर जनवरी के महीने में केशव श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर में गए थे । उस समय वहाँ पर राम, मनोमोहन, जयगोपाल सेन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित थे ।
१५ जुलाई १८८१ ई. को केशव फिर श्रीरामकृष्ण को दक्षिणेश्वर से स्टीमर में ले गए । 
१८८१ ई. के नवम्बर मास में मनोमोहन के मकान पर जिस समय श्रीरामकृष्ण का शुभागमन तथा उत्सव हुआ था । उस समय आमन्त्रित होकर केशव उत्सव में सम्मिलित हुए थे । श्री त्रैलोक्य आदि ने भजन गया था । 
१८८१ ई. के दिसम्बर मास में श्रीरामकृष्ण आमन्त्रित होकर राजेन्द्र मित्र के मकान पर गए थे । श्री केशव भी गए । यह मकान ठनठननिया के बेचू चटर्जी स्ट्रीट में है । राजेन्द्र थे राम तथा मनोमोहन के मौसा । राम, मनोमोहन, ब्राह्मभक्त राजमोहन तथा राजेन्द्र ने केशव को समाचार देकर निमन्त्रित किया था । 
(क्रमशः)

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