मंगलवार, 3 मार्च 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ९६

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥करतूती करम॥* 
*कर्मै कर्म काटै नहीं, कर्मै कर्म न जाइ ।* 
*कर्मै कर्म छूटै नहीं, कर्मै कर्म बँधाइ ॥९६॥* 
संचित प्रारब्ध और आगामी ये तीन प्रकार के कर्म होते हैं । किसी भी कर्म से कर्म का नाश नहीं हो सकता । सभी कर्म अविद्या मूल कहें । किन्तु ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होने पर तो आगामी तथा पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है । अर्थात् उत्तर कर्मों के साथ संश्लेष नहीं और पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है । छान्दोग्य में लिखा है कि जैसे कमल के पत्तों पर पानी नहीं ठहरता वैसे ही ज्ञान होने पर ज्ञानी के पाप कर्मों का सम्बन्ध नहीं हो सकता । ऐसे ही पूर्व कर्मों का नाश भी देखा गया है । जैसे तूलिका को अग्नि में डालने से नष्ट हो जाती है ऐसे ही सब पाप कर्म ज्ञानी के नष्ट हो जाते हैं और भी कोई कर्म अब शेष हों तो वे 
भी ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं । लिखा है कि- 
“उस परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान से हृदय ग्रन्थि खुल जाती है और सारे संशय तथा सारे पाप क्षीण हो जाते हैं । यहां पर यह आशय है कि ब्रह्मविद्या के सामर्थ्य से मिथ्या ज्ञान के निवृत्त होने पर पूर्व सिद्ध कर्तृत्व भौक्तत्व से विपरीत “मैं ब्रह्म स्वरूप हूं” पहले भी ब्रह्म रूप था आगे भी ब्रह्म रूप रहूंगा वर्तमान में भी ब्रह्मरूप ही हूं ऐसा ज्ञान ब्रह्मवेत्ता को होता है । जिससे उसका मोक्ष हो जाता है । अन्यथा अनादिकाल में प्रवृत्त कर्मों का नाश न होने से मोक्ष का अभाव हो जायगा । ब्रह्मसूत्र में लिखा है कि- ब्रह्म ज्ञान होने पर कर्मों का नाश तथा आगामी कर्मों का संश्लेष नहीं होता ज्ञानी के ऐसे ही पुण्य का भी नाश और संश्लेष का अभाव सुना है । पुण्य भी अपना फल देता है । अतः ज्ञान में वह भी प्रतिबन्धक पुण्य के लिये भी पाप शब्द का प्रयोग देखा गया है । “जैसे नैनं सेतु महोरात्रे तरतः” इस श्रुति में पाप के साथ पुण्य का भी अनुक्रमण किया है । “सर्वे पाप्मानो निवर्तन्ते” इस अवशेष मन्त्र में पाप पुण्य इन दोनों का ही निवृत्ति बतलाई है । “क्षीयन्ते चास्य कर्माणि” इस मन्त्र में भी पाप पुण्य दोनों का ही ग्रहण किया गया है । ज्ञान फल की अपेक्षा पुण्य का फल भी ज्ञान से निकृष्ट होने से पुण्य भी ब्रह्म ज्ञान का प्रतिरोधक माना है । प्रारब्ध कर्मों का तो भागने से ही नाश होता है । ब्रह्म सूत्र में कहा है कि- 
चाहे करोड कल्प भी व्यतीत क्यों न हो जाय परन्तु प्रारब्ध कर्म तो भोग के बिना नष्ट नहीं हो सकता । अतः सभी कर्म ज्ञान के प्रति बन्धक होने से कर्मों से कर्मों का नाश नहीं हो सकता । कहा है कि मनुष्य कर्म से बंध जाता है और विद्या से मुक्त हो जाता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी महाराज ने लिखा कि-“कर्मै कर्म काटे नहीं” भागवत में भी कहा है कि- जैसे कीचड से कीचड नहीं धुलता, सुरा पीने से सुरा पीने का जो पाप है, वह निवृत्त नहीं होता । भूतहत्या को यज्ञों से नहीं मिटा सकते और भी कहा है कि हे राक्षसों निषेकादि अवस्थाओं में कर्मों से क्लेश पाने वाले प्राणी को कितना स्वार्थ मिलता है, सो बतलावो, कुछ भी नहीं मिलता यह जीवात्मा शरीर से कर्म करता है कर्मों से शरीर प्राप्त होता है । फिर कर्म करता है यह सब अविवेक से ही है । इसलिये धर्म अर्थ काम मोक्ष जिसके आश्रित्, उस आत्मा हरि को निष्काम भाव से भजो । 
निष्कर्मीपतिव्रता का अंग समाप्तः ॥८॥ 
(क्रमशः)

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