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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ २०१/२०४*
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कहि जगजीवन पार ब्रह्म का, नांम पीछांणै एक ।
हरि सुमिरण हरि हेत स्यूं, नासै विघन अनेक ॥२०१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर का नाम पहचान करनेवाले कोइ कोइ ही होते हैं संत कहते है कि प्रेम पूर्वक स्मरण अनेक विघ्न मिटाता है।
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एहि अक्षर एही बयण, सब कोइ कहै बणाइ ।
कहि जगजीवन मन मांहै मन रहै, सो हरि नांम जणाइ ॥२०२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ये अक्षर और ये वचन ही हैं जिन्हें सुधि जन भातिं भातिं कहते हैं । जिनके मन मे ईश्वर रहते हैं या जो भक्ति द्वारा हरि जी के मन में रहते हैं वे ही इसकी महत्ता जानते हैं।
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भाव भगति सों मन रहै, बिरह ऊपजै सार ।
कहि जगजीवन अनहद धुनि मंहि, बाणी अनंत अपार ॥२०३ ॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिन जन का मन ईश्वर में रहे व ईश्वर का विरह जिन के मन में उपजता है वे ईश्वर तक पहुंच सकने वाली अनहद धुन को सुनते हैं जिसमे अनेक संतो के द्वारा अनंत अपार ईश्वर का वर्णन किया गया है।
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सबद सोइ जे साध कहै, मन चित मुखि हरि नांम ।
कहि जगजीवन सकल सुहावै, पार ब्रह्म का नांम ॥२०४॥
संतजगजीवन जी कहते है कि सार्थक शब्द वही है जो साधु जन द्वारा कहे गये हैं जिनके मुख मन व चित में हरि नाम ही रहता है उन्हें ईश्वर के सब नाम अच्छे लगते हैं ।
(क्रमशः)
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