गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

मन कौ अंग १२४/१२६

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १०. मन कौ अंग)
.
*॥ करणी बिना कथणी ॥* 
*करणी किरका को नहिं, कथनी अनंत अपार ।* 
*दादू यों क्यों पाइये, रे मन मूढ गँवार ॥१२४॥* 
हे मुर्ख मन ! मैं ब्रह्म को जानता हूं, इतने कथन मात्र से कोई भी ब्रह्म को नहीं जान सकता । उसके जानने के लिये साधन चतुष्टय की अपेक्षा है अतः केवल ब्रह्म वार्ता को त्याग कर उसका श्रवण मनन निदिध्यासन आदि जो साधन हैं उनको अपने जीवन में अपनाओ । 
विवेक चूडामणि में कहा है कि- “विवेक वैराग्य आदि गुणों की वृद्धि से मन शुद्ध होता है । अतः मुमुक्षु को चाहिये मुक्ति के लिये इन दोनों को दृढ़ करे ।” और वहीँ पर लिखा है कि- वैखरवाणी में केवल शब्दोच्चारण करते रहना और शास्त्रों की बड़ी कुशलता से व्याख्यान करना यह विद्वानों की विद्वता केवल भोग के लिये है, मुक्ति के लिये नहीं है । 
*॥ जाया माया मोहनी ॥* 
*दादू मन मृतक भया, इंद्री अपने हाथ ।* 
*तो भी कदे न कीजिये, कनक कामिनी साथ ॥१२५॥* 
यद्यपि साधक ने अपने मन और इन्द्रियों को स्वाधीन कर लिया है, फिर भी कनक और कामिनी का त्याग ही करना चाहिये क्योंकि ये दोनों ही साधक के चित्त को मोहित करने वाले माने गये हैं । ये दोनों ही साधक के चित्त में विषय की कामना पैदा कर उसके चित्त को चंचल बना देते हैं । 
योगवासिष्ठ में कहा है कि- “अनात्मा में आत्मभाव करने से देह में सत्यत्व बुद्धि के होने से पुत्र स्त्री कुटुम्ब आदि के संग से यह चित्त महान् चंचल हो जाता है । स्त्री पुत्रदिकों के स्नेह से, धन के लाभ से तथा स्त्री मणि की जो अपार रमणीयता है, उनकी प्राप्ति से यह मन चंचल हो जाता है ।” 
*॥ मन ॥* 
*अब मन निर्भय घर नहीं, भय में बैठा आइ ।* 
*निर्भय संग थैं बीछुट्या, तब कायर ह्वै जाइ ॥१२६॥* 
यह मन निर्भय ब्रह्मरूपी घर को त्याग कर भय देने वाले विषयों में रमण करता है, तब यह कायर हो जाता है । ऐसा मैं मानता हूं । भोग महारोग है फिर भी उनको यह नहीं छोड़ता है । इन्द्रियाँ शत्रु हैं लेकिन उनको नहीं जीतता किन्तु उनके वश में हो जाता है । अन्दर दुष्ट आशाओं से जिनकी चेष्टा कठोर है उनसे यह मन अग्नि की तरह जलता रहता है । फिर भी उन दुराशाओं को नहीं त्यागता । जो शूर वीर होते हैं वे उन शत्रुओं को मार देते हैं कायर(विषय भोगी) से एक तृण भी नहीं टूटता । इसलिये साधक को शूरवीर होना चाहिये । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें