गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

*यह संसार क्यों है?*

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*दादू करणहार जे कुछ किया, सोई हौं कर जाण ।*
*जे तूं चतुर सयाना जानराइ, तो याही परमाण ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ हैरान का अंग)*
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(५)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
(गीत, ७\१३)
*यह संसार क्यों है?*
श्रीरामकृष्ण(केशव आदि से)- बन्धन और मुक्ति दोनों ही की कर्त्री वे हैं । उनकी माया से संसारी जीव काम-कांचन में बँधा है और फिर उनकी दया होते ही वह छूट जाता है । वे ‘भवबन्धन की फाँस काटनेवाली तारिणी’ हैं ।
यह कहकर गन्धर्वकण्ठ से भक्त रामप्रसाद का गीत गाने लगे जिसका आशय यह है :-
“श्यामा माँ, संसार-रूपी बाजार के बीच तू पतंग उड़ा रही है । यह आशा-वायु के सहारे उड़ती है । इसमें माया की डोर लगी हुई है । विषयों के माँझे से यह कर्री हो गयी है । लाखों में से दो ही एक(पतंगें) कटती हैं और तब तू हँसकर तालियाँ पीटती है ।......’
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“वे लीलामयी हैं । यह संसार उनकी लीला है । वे इच्छामयी, आनन्दमयी हैं, लाख आदमियों में कहीं एक को मुक्त करती हैं ।”
ब्राह्मभक्त- महाराज, वे चाहें तो सभी को मुक्त कर सकती हैं, तो फिर क्यों हम लोगों को संसार में बाँध रखा है ?” 
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श्रीरामकृष्ण- उनकी इच्छा ! उनकी इच्छा कि वे यह सब लेकर खेल करें । छुई-छुऔअल खेलनेवाले सभी लड़के अगर ढाई को दौड़कर छू लें तो खेल ही बन्द हो जाय ! और यदि सभी छू लें तो ढाई नाराज भी होती है । खेल चलता है तो ढाई खुश रहती है । इसीलिए कहते हैं- लाखों में से दो ही एक कटते हैं और तब तू हँसकर तालियाँ पीटती है । (सब प्रसन्न होते हैं ।)
“उन्होंने मन को आँखों के इशारे कह दिया है- ‘जा, संसार में विचर ।’ मन का क्या कसूर है? वे यदि फिर कृपा करके मन को फेर दें तो विषय-बुद्धि से छुटकारा मिले; तब फिर उनके पादपद्मों में मन लगे ।”
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श्रीरामकृष्ण संसारियों के भाव में माँ के प्रति अभिमान करके गाने लगे ।”
(भावार्थ)-‘“मैं यह खेद करता हूँ कि तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते हुए भी, घर में चोरी हो ! मन में होता है कि तुम्हारा नाम लूँ, परन्तु समय टल जाता है । मैंने समझा है, जाना है और मुझे आशय भी मिला है कि यह सब तुम्हारी ही चातुरी है । तुमने न कुछ दिया, न पाया; न लिया, न खाया; यह क्या मेरा ही कसूर है? यदि देतीं तो पातीं, लेतीं और खातीं, मैं भी तुम्हारा ही तुम्हें देता और खिलाता । यश अपयश, सुरस कुरस, सभी रस तुम्हारे हैं । रसेश्वरी ! रस में रहकर यह रसभंग क्यों? ‘प्रसाद’ कहता है- तुम्हीं ने मन को पैदा करते समय इशारा कर दिया है । तुम्हारी यह सृष्टि किसी की कुदृष्टि से जल गयी हैं, पर हम उसे मीठी समझकर भटक रहे हैं ।’
“उन्हीं की माया से भूलकर मनुष्य संसारी हुआ है । ‘प्रसाद’ कहता है, तुम्हीं ने मन को पैदा करते समय इशारा कर दिया है ।”
(क्रमशः)

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