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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १९३/१९६*
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रांम नांम दांतण३ सरस, रांम नांम मुख धोइ ।
कहि जगजीवन रांम नांम सौं, सब अंग उत्तम होइ ॥१९३॥
(३. दांतण-दतुअन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव राम नाम को अपनी दिनचर्या में इस प्रकार शामिल करें कि वही तुम्हारे दंत धावन का मंत्र बने वही मुख प्रक्षालन मंत्र हो इससे सारी देह उत्तम होती है।
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जगजीवन सारै फिरै, कण लागै हरि नांम ।
रंग रली फूली फली, हरी हुई सब ठांम ॥ १९४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारे संसार में ईश्वर को खोजने व प्रयत्न करने के बाद जहाँ से साधकजन सत्यकण रुप में भी हरि नाम की महता जान पाते हैं तो वहीं से उस रंग में रम कर उसी के अनुरूप हो जाते हैं।
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कहि जगजीवन रांमजी, अंतहकरण१ अगाध ।
मन बुधि चित अहंकार हरि, सुध करि सुमरै रांम ॥१९५॥
(१. अंतहकरण-मन आदि चतुष्टय)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव के अंतकरण में असीमित विषय भरे हैं। किंतु यदि वह अपने मन बुद्धि चित व अहंकार को ईश्वर की और लगा दे व ध्यानपूर्वक राम नाम का स्मरण करे तो कल्याणकारी है।
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लखि तन नौ लखि बस हरि, लखि लखि रसनां नांम ।
कहि जगजीवन हरि भगत, रांम रटै मिलि रांम ॥१९६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह धर्म यही है कि यह शरीर देखे, इसके नो द्वार देखे सब नश्वर है, इसमें सार्थक जिह्वा द्वारा लिया गया हरि नाम ही है। जिसके द्वारा हरि भक्त स्मरण कर राममय हो जाते हैं।
(क्रमशः)
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