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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त Ram Gopal तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १४५/१४८*
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ज्यों जीयरा तैं अन्न सों, यों जे राचत नांइ ।
कहि जगजीवन नूर का, देत पियाला सांइ ॥१४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस प्रकार जीव अन्न के बिना संतुष्ट नहीं होता, इसी प्रकार प्रभु जी जीव की अध्यात्मिक तुष्टि के लिये उसे प्रेम प्याला देते हैं। जिसके आनंद से वह प्रभु दर्शन का आनंद प्राप्त कर सकता है।
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कहि जगजीवन सम्पदा, हरि सुमिरण हरि नांम ।
विसमरण१ विपदा आंन क्रित, ह्रिदै बिसर जन रांम ॥१४६॥
(१. विसमरण—भूलना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव कि सार्थक सम्पत्ति हरि स्मरण व हरि नाम ही है और प्रभु नाम का विस्मरण विपत्ति का कारक है अतः है जीव अपने हृदय से राम नाम विस्मृत न होने दें ।
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र राजी ब्रह्मा बिष्णु, र राजी हर साध ।
कहि जगजीवन रंरकार हरि, अबिगत अलख अगाध ॥१४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रंरकार की ध्वनि से ब्रह्मा विष्णु यानि सृष्टिकर्ता व पालनहार सभी प्रसन्न होते हैं व सभी साधु जन इससे प्रसन्न हैं। क्योंकि इस ध्वनि के द्वारा ही उन न देखे व न जाने जा सकने वाले प्रभु को पाया जा सकता है।
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कहि जगजीवन सबद सुगम, कठिन नांम निज सार ।
ताहि जाणि हरि पिछांणै, नव लहै वरण विचार ॥१४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि शब्द का कहना आसान है किन्तु उसके अर्थ तक पहुँचना कठिन है। प्रभु तो अर्थ भाव को ही जानते हैं, वे वर्ण विचार या शब्दोँ के चयन पर ध्यान नहीं देते।
(क्रमशः)
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