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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त Ram Gopal तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १६१/१६४*
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ग्यांन गजर हरि हरि सबद, आठ घड़ी इक जाम३ ।
कहि जगजीवन हरि भगति, निस बासुर रटि रांम ॥१६१॥
{३. जाम-याम(प्रहर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्ञान रुपी गजर या नगाड़ा हरि हरि शब्द ध्वनित करे और यह क्रम आठों पहर चले। संत कहते हैं कि रात दिन राम राम स्मरण ही प्रभु भक्ति है।
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हरि को भलौ मनावतां, भले भले सब ठांम ।
कहि जगजीवन यहि भली मति, नित उठ रटिये रांम ॥१६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के हर कृत्य में भला ही है, सब स्थान पर प्रभु भला ही करते हैं, संत कहते हैं कि हर समय प्रभु स्मरण ही श्रेष्ठ बुद्धि है।
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अक्षिर मांहि अनंत गुन, अनभै बांणी नांम ।
कहि जगजीवन जन लहै, राखि रिदा मंहि रांम ॥१६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अक्षर में आनंत गुण है अक्षर ही अनुभव को वाणी बनाते हैं जिसे ग्रहण कर जीव हृदय में रहने वाले राम को जान पाते हैं।
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बरकत४ रहै संसार सौ, रांम कहै मन मांहि ।
कहि जगजीवन धर्या की, छाया व्यापै नांहि ॥१६४॥
(४. बरकत-अतिरिक्त वृद्धि=सौभाग्य)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में अपेक्षा से अधिक सौभाग्य होता है यदि जीव राम राम रटता रहे, तो उसे पूर्व के कुछ सुख दुख धारण किये की छाया भी व्याप कर दुखी नहीं कर सकती।
(क्रमशः)
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