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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ २१३/१६*
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घाट बंधै घट मांहि रहै, बहै न बहती धार ।
जगजीवन मन हाथ करि, हरि भजि उतरै पार ॥२१३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सिमट जाता है वह ही स्थिर रहता है और पहचान बनती है। हृदयस्थ रहता है। अतः अपने मन को जो जन वश में रखते हैं, वे स्मरण द्वारा भव से पार उतरते हैं।
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दोइ अक्षर मैं सकल है, कोटि ग्रंथ किहिं काम ।
कहि जगजीवन सब पढ्या, जे चित आवै रांम ॥२१४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि करोड़ों ग्रंथ जिस प्रयोजन को सिद्ध करेंगे उसी प्रयोजन को राम नाम के दो अक्षर पूर्ण कर देते हैं। सब ग्रंथों के पढने से भी चित में राम ही आते हैं।
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जगजीवन अक्षर कली, प्रेम बासना मंझ ।
हरि भजि बिगसै जन लहै, वपु बाड़ी२ महि गंझ ॥२१५॥
(३. वपु बाड़ी-शरीर रूपी बाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम शब्द के वर्ण ‘र’ व ‘म’ दो कलियों के समान है, व उनसे प्रेम खुशबू है। हरि स्मरण से विकसित होकर वह पुष्प काया रुपी वाटिका में फलता है।
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साखी सोई पद भला, प्रेम सहित जे होइ ।
कहि जगजीवन नांव सौ, फेरी सकै नहिं कोइ ॥२१६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वही साखी सुन्दर है जिसमे प्रेम के पद हों। उसके भजन से निश्चय ही स्मरण होता है।
(क्रमशः)
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