रविवार, 5 अप्रैल 2020

*६९. भक्‍तों के साथ प्रेम-रसास्‍वादन*

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*ता माली की अकथ कहानी,*
*कहत कही नहिं आवै ।
*अगम अगोचर करत अनन्दा,*
*दादू ये जस गावै ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ३७०)
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*६९. भक्‍तों के साथ प्रेम-रसास्‍वादन*
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एक दिन आपने नित्‍यानंद जी से कहा- ‘श्रीपाद ! आचार्य इधर बहुत दिनों से नवद्वीप नहीं पधारे, चलो शांतिपुर चलकर ही उनके दर्शन कर आवें।’ नित्‍यानंद जी को भला इसमें क्‍या आपत्ति होनी थी? दोनों ही शांतिपुर की ओर चल पड़े। दोनों ही एक-से मतवाले थे, जिन्‍हें शरीर की सुधि नहीं, उन्‍हें भला रास्‍ते का क्‍या पता रहेगा? चलते-चलते दोनों ही रास्‍ता भूल गये।
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भूलते-भटकते दोनों गंगा जी के किनारे ललितपुर में पहुँचे। ललितपुर में पहुँचकर गंगा जी के किनारे इन्‍हें एक घर दिखायी दिया। लोगों से पूछा- ‘क्‍यों जी, यह किसका घर है?’ लोगों ने कहा- ‘यह घर गृहस्‍थी संन्‍यासी का है।’
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यह उत्तर सुनकर प्रभु बड़े जोरों से खिलखिलाकर हंस पड़े और नित्‍यानंद जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद ! यह कैसे आश्‍चर्य की बात ! गृहस्‍थी भी और फिर संन्‍यासी भी। गृहस्‍थी-संन्‍यासी तो हमने आजतक कभी नहीं देखा। चलो देखें तो सही, गृहस्‍थी-संन्‍यासी कैसे होते हैं? नित्‍यानंद जी यह सुनकर उसी घर की ओर चल पड़े। प्रभु भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उस घर के द्वार पर पहुँचकर दोनों ने काषाय-वस्‍त्र पहने संन्‍यासी वेषधारी पुरुष को देखा।
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नित्‍यानंद जी ने उन्‍हें नमस्‍कार किया। प्रभु ने संन्‍यासी समझकर उन्‍हें श्रद्धा सहित प्रणाम किया। संन्‍यासी के सहित एक परम सुंदर तेजस्‍वी तेईस वर्ष के ब्राह्मण-कुमार को अपने घर पर आते देखकर संन्‍यासी जी ने उनकी यथायोग्‍य अभ्‍यर्चना की और बैठने को आसन दिया। परस्‍पर में बहुत-सी बातें होती रहीं।
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प्रभु तो सदा प्रेम के भूखे ही बने रहते थे। उन्‍होंने चारों ओर देखते हुए संन्‍यासी जी से कहा- ‘संन्‍यासी महाराज ! कुछ कुटिया में हो तो जलपान कराइये।’ संन्‍यासी जी के घर में दो स्त्रियाँ थी। उनसे संन्‍यासी जी ने जलपान लाने के लिये कहा। तब तक नित्‍यानंद जी के सहित प्रभु जल्‍दी से गंगा-स्‍नान करके आ गये और अपने-अपने आसनों पर दोनों ही बैठ गये। आषाढ़ का महीना था।
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संन्‍यासी जी की स्‍त्री सुंदर-सुंदर आम और छिले हुए कटहल के कोये दो पात्रों में सजाकर लायीं। दो कटोरों में सुंदर दुग्‍ध भी था। प्रभु जल्‍दी-जल्‍दी कटहल और आमों को खाने लगे। वे संन्‍यासी महाशय वाममार्गी थे। यह हम पहले ही बता चुके हैं, उस समय बंगाल में वाममार्ग-पन्‍थ का प्राबल्‍य था।
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स्‍त्री ने पूछा- ‘क्‍या ‘आनन्‍द’ भी थोड़ी-सी लाऊं? संन्‍यासी जी ने संकेत द्वारा उसे मना कर दिया। स्‍त्री भीतर चली गयी। एक बड़े आम को खाते हुए प्रभु ने नित्‍यानंद जी से पूछा- ‘श्रीपाद ! ‘आनन्‍द’ क्‍या वस्‍तु होता है? क्‍या संन्‍यासीयों की भाषा पृथक होती है? या गृहस्‍थी-संन्‍यासीयों की यह भाषा है। तुम तो गृहस्‍थी–संन्‍यासी नहीं हो फिर भी जानते ही होगे।’
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प्रभु के इस प्रश्‍न से नित्‍यानंद जी हंसने लगे। प्रभु ने फिर पूछा- ‘श्रीपाद ! हंसते क्‍यों हो, ठीक-ठीक बताओ ? आनन्‍द क्‍या है? कोई मीठी चीज हो तो मंगाओ, दूध के पश्‍चात मीठा मुंह होगा !’ आम के रस को चूसते हुए नित्‍यानंद जी ने कहा- ‘प्रभो ! ये लोग वाममार्गी हैं। मदिरा को ‘आनन्‍द’ कहकर पुकारते हैं।
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यह सुनकर प्रभु को बड़ा दु:ख हुआ। वे चारों ओर घिरे हुए सिंह की भाँति देखने लगे। इतने में ही स्‍त्री के बुलाने पर संन्‍यासी महाशय भीतर चले गये। उसी समय प्रभु जलपान के बीच में से ही उठकर दौड़ पड़े। नित्‍यानंद जी भी पीछे-पीछे दौड़े। इन दोनों को जलपान के बीच में ही भागते देखकर संन्‍यासी जी भी इन्‍हें लौटाने के लिये चले।
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प्रभु जल्‍दी से गंगा जी में कूद पड़े और तैरते हुए शांतिपुर की ओर चलने लगे। नित्‍यानंद जी तो तैरने के आचार्य ही थे, वे भी प्रभु के पीछे-पीछे तैरने लगे। गंगा जी के बीच में ही प्रभु का आवेश आ गया। दो कोस के लगभग तैरकर ये शांतिपुर के घाटपर पहुँचे और घाट से सीधे ही आचार्य के घर पहुँचे।
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दूर से ही हरिदास जी ने प्रभु को देखकर उनकी चरण-वंदना की, किंतु प्रभु को कुछ होश नहीं था, वे सीधे अद्वैताचार्य के ही समीप पहुँचे। उन्‍हें देखते ही प्रभु ने कहा- ‘क्‍यों ! फिर सूखा ज्ञान बघारने लगे।’ आचार्य ने कहा- ‘सूखा ज्ञान कैसे है, ज्ञान तो सर्वश्रेष्‍ठ है। भक्ति तो स्त्रियों के लिये है।’
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इतना सुनते ही प्रभु जोरों से अद्वैताचार्य जी को पीटने लगे। सभी लोग आश्‍चर्य के साथ इस अद्भुत लीला को देख रहे थे। किसी की भी हिम्‍मत नहीं होती थी कि प्रभु की इस काम से निवारण करे। प्रभु भी बिना कुछ सोचे- विचारे बूढ़े आचार्य की पीठ पर थप्‍पड़– घूंसे मार रहे थे। ज्‍यों-ज्‍यों मार पड़ती, त्‍यों-ही-त्‍यों अद्वैत और अधिक प्रसन्‍न होते। मानों प्रभु अपने प्रेम की मारद्वारा ही अद्वैताचार्य के शरीर में प्रेम का संचार कर रहे हैं।
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अद्वैताचार्य के चेहरे पर दु:ख, शोक या विषण्णता अणुमात्र भी नहीं दिखायी देती थी। उलटे वे अधिकाधिक हर्षोन्‍नमत्त- से होते जाते थे। खटपट और मार की आवाज सुनकर भीतर से आचार्य की धर्मपत्‍नी सीता देवी भी निकल आयीं।
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उन्‍होंने प्रभु को आचार्य के शरीर पर प्रहार करते देखा तो घबड़ा गयीं और अधीर होकर कहने लगीं- ‘हैं, हैं, प्रभु ! आप यह क्‍या कर रहे हैं। बूढ़े आचार्य के ऊपर आपको दया नहीं आती।’ किंतु प्रभु किसी की कुछ सुनते ही न थे। आचार्य भी प्रेम में विभोर हुए मार खाते जाते और नाचते-नाचते गौर-गुणवान करते जाते। इस प्रकार थोड़ी देर के पश्‍चात प्रभु को मूर्च्‍छा आ गयी और बेहोश होकर गिर पड़े।
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बाह्यज्ञान होने पर उन्‍होंने आचार्य को हर्ष के सहित नृत्‍य करते और अपने चरणों में लोटते हुए देख, तब आप जल्‍दी उठकर क‍हने लगे- ‘श्री‍हरि, श्री‍हरि ! मुझसे कोई अपराध तो नहीं हो गया। मैंने अचेतनावस्‍था में कोई चंचलता तो नहीं कर डाली। आप तो मेरे पितृतुल्‍य हैं। मैं तो भाई अच्‍युत के समान आपका पुत्र हूँ। अचेतनावस्‍था में यदि कोई चंचलता मुझसे हो गयी हो, तो उसे आप क्षमा कर दें।’ इतना कहकर ये चारों ओर देखने लगे।
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सामने सीता देवी को खड़ी हुई देखकर आप उनसे कहने लगे- ‘माता जी! बड़ी जोर की भूख लग रही है। जल्‍दी से भोजन बनाओ।’ यह कहकर आप नित्‍यानंद जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद ! चलो, जब तक हम जल्‍दी से गंगास्‍नान कर आवें और तब तक माता जी भात बना रखेंगी।’
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इनकी बात सुनकर आचार्य हरिदास तथा नित्‍यानंद जी इनके साथ गंगा जी की ओर चल पड़े। चारों ने मिलकर खूब प्रेमपूर्वक स्‍नान किया। स्‍नान करने के अनन्‍तर सभी लौटकर आचार्य के घर आ गये।
(क्रमशः)

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