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*फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।*
*सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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संतोष सदन१ तब पाइये, जब तृष्णा तन नाश ।
ब्रह्माण्ड पिंड सेती२ जुदा, जन रज्जब विश्वास ॥७७॥
जब सुक्ष्म शरीर में स्थित तृष्णा नष्ट हो जाती है तब संतोष रूप घर१ प्राप्त होता है । ईश्वर विश्वास प्राणी को ब्रह्माण्ड और शरीर से२ अलग कर देता है ।
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संतोष सबूरी१ अगम घर, गुरु पीर२ हुं अस्थान ।
विश्वास तवक्कुल३ में रहे, निश्चै दुरुस्त४ ईमान५ ॥७८॥
संतोष व संयम१ अगम ब्रह्म रूप घर में पहुँचाने वाले हैं, गुरु और सिद्ध२ संतों में संतोषादि का निवास है वा गुरु और सिद्ध संत संतोषादि में रहते हैं । विश्वास और ईश्वर भरोसे३ में ही धर्म५ का ठीक४ निश्चय रहता है ।
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बेदाना बंदे१ मिले, बीज रहित बिन चाहि२ ।
रज्जब फिर ऊगे नहीं, गये सु जन्म निभाहि ॥७९॥
बेदाना बीज रहित होने से फिर नहीं उगता, वैसे ही संत१ तृष्णा२ रहित होने से पुन: नहीं जन्मते । भूतकाल में संत इस प्रकार ही अपने जन्म के समय से निर्वाह करके ब्रह्म को प्राप्त हुये हैं ।
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रज्जब ध्याये१ ध्यान हरि, भूत२ भूख३ भई भंग ।
भूरि४ भाग भै५ भै६ सुखी, उठै सु उन्नति अंग७ ॥८०॥
ध्यान द्वारा हरि की उपासना१ करने से प्राणियों की तृष्णा२ रूप भूख३ नष्ट होती रही है, हरि ध्यान से प्राणी विशाल४ भाग्य वाला होता५ है और सुखी होता६ है । उसके शरीर में उन्नति के लक्षण७ प्रकट होते हैं ।
(क्रमशः)
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