रविवार, 5 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(२९/३२)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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अनल अंड ज्यों ठौर बिन, नहीं पोष पंख पाव१ ।
जन रज्जब सो नीपजे, तो पूरण पूरा गाव२ ॥२९॥ 
अनल पक्षी के अंड के लिये न तो ठहरने का स्थान होता, न पोषण का प्रबन्ध, न पंख होते हैं किन्तु सन्तोष होने से अंत में पृथ्वी रूप स्थान, खाने को हाथी और उड़ने को पंख प्राप्त१ हो ही जाते हैं । तब निश्चय ही संपोष पूर्णता को प्राप्त कराने का पूरा साधन है । ऐसा ही संतोष का यशोगान२ करना चाहिये ।
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कूंजी कूरम१ अनल के, अंडे देखी जोय ।
रज्जब राखै सो कहां, तो क्यों विश्वास न होय ॥३०॥ 
कूंजी, कूर्मी, अनल पक्षी के अंडों की और देखो, वे कहाँ रखे जाते हैं - कूंजी हिमालय पर्वत के बर्फ में अंडा रखती है । कच्छपी जल के तीर स्थल में अंडा रखती है । अनल पक्षी आकाश में ही रखता है, उक्त तीनों की ही भगवान रक्षा करते हैं, तब उन प्रभु पर विश्वास क्यों होगा ?
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उदर दिया सो आहार देयगा, गला बनाया गाले१ काज ।
रज्जब चंचु चूणि२ को सिरजी, किये किये की सब को लाज ॥३१॥ 
जिस प्रभु ने पेट दिया है, वही भोजन देना, गला निगलने१ के लिये ही बनाया गया है । चूंच चुगने२ के लिये ही उत्पन्न की है, अपने उत्पन्न किये हुये की लज्जा सभी को करनी पड़ती है अर्थात उसका पालन करना ही पड़ता है ।
असंख्य लोक अंतक१ सहित, भोजन दे भगवान ।
ता पूरण सौं प्रीतिकर, शोच करै क्यों संत ॥३२॥
भगवान काल१ के सहित असंख्य लोकों को भोजन देते हैं, उन पूर्ण ब्रह्म से प्रेम करके भोजन संबंधी चिन्ता संत क्यों करेंगे ?
(क्रमशः)

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