शनिवार, 9 मई 2020

*४. विरह कौ अंग ~ १८९/१९२*

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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*४. विरह कौ अंग ~ १८९/१९२*
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आहे फिराक आवाज दिल, आसिक अल्लह दीद ।
षरद मंद दांना सयाना, गुफ्त जगजीवन रसीद ॥१८९॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि दर्शन की चाह के कारण हर समय दिल से स्मरण, नाम की ध्वनि होती रहती है। संत कहते हैं कि जीव परमात्मा की कृपा के लिये तत्पर रहता है।
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षलबति फिराक कीनी अंत, करम करीम रहीम ।
कहि जगजीवन जिता अंत, दरुने अलह बीम ॥१९०॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु आपके दर्शन की चाह में ये जीवन ही ना बीत जाये । हे दयामय कृपा करें आप ही हमारे आधार हैं।
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हिजाज सहबति सषईयां, गुसल करदां बूदं ।
कहि जगजीवन बिजुसतन, दिल अंदर औजूद ॥१९१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा की संगत या सानिध्य के लिये सिर्फ बाहरी प्रक्षालन ही पर्याप्त नहीं है जो तुम नियमानुसार करते हो उसके लिये तो आंतरिक प्रक्षालन होना जरुरी है। वो रब तो दिल के अंदर है।
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मफलसी सिकम मुसाफरी, सुखन जगावै जास ।
कहि जगजीवन सोई लहै, जाके अंदर प्यास ॥१९२॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि इस जीवन यात्रा में जीव रजकण जैसा सूक्ष्म हो तभी वह सुख की आशा पूर्ण कर पायेगा। और वह ही प्रभु को पायेगा जिसके अंतर में प्रभु पाने की लगन जनित प्यास होगी ।
(क्रमशः)

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