शुक्रवार, 8 मई 2020

*१२७. प्रभु के वृन्दावन जाने से भक्तों को विरह*

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*दादू घायल दरदवंद, अंतरि करै पुकार ।*
*सांई सुणै सब लोक में, दादू यह अधिकार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२७. प्रभु के वृन्दावन जाने से भक्तों को विरह*
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सज्जनसंगो मा भूद् यदि संगो मास्तु तत्पुनः स्नेहः।
स्नेहो यदि मा विरहो मास्तु जीवितस्याशा॥[१]
([१] उत्तम बात तो यह है कि सज्जनों का संग ही न हो, यदि कदाचित संग हो ही जाय, तो उनसे स्नेह न हो, दैवयोग से स्नेह भी हो जाय तो उनसे वियोग न हो और यदि वियोग हो तो फिर इस जीवन की आशा न रहे। अर्थात् प्यारे के विरह की अपेक्षा मर जाना अच्छा है। सु. र. भां. ९१।२०)
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दक्षिण की यात्रा समाप्त करने के अनन्तर महाप्रभु के नीलाचल में रहते हुए चार वर्ष हो गये। वृन्दावन जाने के लिये प्रभु प्रतिवर्ष सोचते थे, किन्तु रथयात्रा के पश्चात् भक्त कहते चातुर्मास में यात्रा निषेध है, वे कार्तिक आने पर दिवाली करके जाने को कहते। फिर जाड़ा आ जाता, जाड़ा समाप्त होने पर कहते, बड़ी गर्मी है, पश्चिम में तो और भी अधिक है अब कहाँ जाइयेगा।
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इस प्रकार आजकल करते-करते ही चार वर्ष व्यतीत हो गये। महाप्रभु राय रामानन्द जी तथा सार्वभौम भट्टाचार्य आदि भक्तों के प्रेम-पाश में इस प्रकार जकड़कर बंधे हुए थे कि वे स्वेच्छा से जाने में समर्थ होने पर भी इन लोगों की सम्मति लिये बिना जाना नहीं चाहते थे। भक्तों ने जब देखा कि अब की बार प्रभु वृन्दावन जाने के लिये तुले ही हुए हैं, तो उन्होंने विवशतापूर्वक अपनी स्वीकृति दे दी।
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अबके गौड़ीय भक्त रथयात्रा करके ही लौट गये थे, सदा की भाँति उन्होंने चातुर्मास पुरी में नहीं किया था। प्रभु ने उनसे कह दिया था कि तुम चलो हम भी पीछे से आयेंगे। इसी आनन्दमें भक्त प्रसन्नतापूर्वक चले गये थे। वर्षाकाल समाप्त हो गया। क्वार का महीना आ गया। विजयादशमी के दिन महाप्रभु ने गौड़ होते हुए वृन्दावन जाने का निश्चय किया।
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प्रातःकाल उठकर वे नित्यकर्म से निवृत्त हुए। समुद्र-स्नान करके प्रभु लौटे भी नहीं थे कि इतने में ही भक्तों की भीड़ लगनी आरम्भ हो गयी। धीरे-धीरे सभी मुख्य-मुख्य भक्त महाप्रभु के स्थानपर एकत्रित हुए। महाप्रभु सभी भक्तों को साथ लेकर श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये चले। मन्दिर में पहुँचकर प्रभु ने भगवान से आज्ञा माँगी, उसी समय पुजारी ने माला और प्रसाद लाकर प्रभु को दिया।
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भगवान की प्रसादी, माला और महाप्रसादान्न पाकर प्रभु अत्यन्त ही सन्तुष्ट हुए और इसे ही भगवान की आज्ञा समझकर मन्दिर की प्रदक्षिणा करते हुए वे कटक की ओर चलने लगे। प्रभु के पीछे-पीछे सैकड़ों गौड़देशीय तथा उड़िया-भक्त आँसू बहाते हुए चल रहे थे।
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महाप्रभु उनसे बार-बार लौटने के लिये कहते, उनसे आग्रह करते, चलते-चलते खड़े हो जाते और सबको प्रेमपूर्वक आलिंगन करते हुए कहते- 'बस अब हो गया। आपलोग अपने-अपने घरों को लौट जायँ। पुरुषोत्तमभगवान की कृपा होगी तो मैं शीघ्र ही लौटकर आपलोगों के दर्शन करूँगा।' इस प्रकार प्रभु भाँति-भाँति से उन्हें समझाते, किन्तु कोई पीछे लौटता ही नहीं था, लौटना तो अलग रहा, पीछे की ओर देखने में भी भक्तों का हृदय फटता था, वे प्रभु के वियोगजन्य दुःख का स्मरण आते ही जोरों से रुदन करने लगते।
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इस प्रकार भक्तों को आग्रह करते-करते ही प्रभु भवानीपुर आ पहुँचे। महाप्रभु ने अब आगे और चलना उचित नहीं समझा, अतः यहीं रात्रि-निवास करने का निश्चय किया। इतने में ही पालकी पर चढ़कर राय रामानंदजी भी प्रभु की सेवा में आ पहुँचे। उनके छोटे भाई वाणीनाथ जी भी भगवान का बहुत-सा प्रसाद कई आदमियों से साथ लिवाकर भवानीपुर आ उपस्थित हुए। महाप्रभु ने अपने हाथों से जगन्नाथजी का महाप्रसाद सभी भक्तों को आग्रहपूर्वक खूब ही खिलाया और आपने भी भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त साथ ही प्रसाद पाया। रात्रिभर सभी ने वहीं विश्राम किया।
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महाप्रभु के अत्यन्त आग्रह से कुछ तो पुरी को लौट गये, किन्तु बहुत-से प्रभु के साथ ही चलने के लिये तुले हुए थे। उनमें मुकुन्द, गोविन्ददत्त, गदाधर, दामोदर पण्डित, वक्रेश्वर, स्वरूपगोस्वामी, गोविन्द, चन्दनेश्वर, सार्वभौम भट्टाचार्य तथा रामानन्द राय आदि मुख्य थे। महाप्रभु इन सबके साथ भुवनेश्वर आये और वहाँ से दर्शन करके कटक पहुँचे।
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वहाँ पर सभी ने गोपाल भगवान के दर्शन किये और सभी मिलकर संकीर्तन करने लगे। इसी समय स्वप्नेश्वर नामक एक ब्राह्मण ने प्रभु का निमन्त्रण किया, महाप्रभु उसका निमन्त्रण स्वीकार करके उसके यहाँ भिक्षा करने गये। शेष सभी भक्तों को राय रामानन्द जी ने भोजन कराया। महाप्रभु ने एक सुन्दर-से वकुलवृक्ष के नीचे अपना आसन लगाया।
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राय रामानन्द जी उसी समय कटकाधिप महाराज प्रतापरुद्र जी के समीप गये और वहाँ जाकर उन्होंने प्रभु के शुभागमन का समाचार सुनाया। इस सुखद समाचार के सुनते ही महाराज के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। वे अस्त-व्यस्त-भाव से प्रेम में विभोर हुए प्रभु के दर्शनों के लिये चले। उनके पीछे उनके सभी मुख्य-मुख्य राज-कर्मचारी भी प्रभुकी चरण-वन्दना करने के निमित्त चले।
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महाराज अति दीन-वेश से आँखों में आंसू भरे हुए अत्यन्त ही नम्रता के साथ नंगे ही पांवों प्रभु के समीप जा रहे थे। उन्होंने दूर ही पालकी छोड़ दी थी और पैदल ही प्रभु के समीप पहुँचे। पहुँचते ही वे अधीर होकर प्रभु के पादपद्मों में गिर पड़े। महाराजको अपने पैरों में पड़े देखकर प्रभु जल्दीसे उठकर खड़े हो गये और उन्हें जोरों से आलिंगन करने लगे।
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महाप्रभु का प्रेमालिंगन पाकर महाराज बेसुध हो गये, प्रभु के नेत्रों से निरन्तर प्रेमाश्रु निकल रहे थे, वे अश्रु उन महाभाग महाराज के सभी वस्त्रों को भिगो रहे थे। उन वस्त्रों का भी सौभाग्य था। बड़ी देर तक यह करुण दृश्य ज्यों-का-त्यों ही बना रहा। फिर महाप्रभु ने महाराज को प्रेमपूर्वक अपने समीप बैठाया और उनके शरीर, राज्य तथा कुटुम्ब-परिवार की कुशल-क्षेम पूछी। बहुत देर तक महाराज प्रभु के समीप बैठे रहे।
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महाराज के प्रणाम कर लेने के अनन्तर क्रमशः सभी बड़े-बड़े राज-कर्मचारियों ने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया और प्रभु-कृपा की याचना की। महाप्रभु ने उन सभी पर कृपा की और वे सभी से प्रेमपूर्वक कुछ-न-कुछ बातें करते रहे। महाराज ने प्रभु की यात्रा के पथ में सर्वत्र ही उनके ठहरने तथा नियत समय पर जगन्नाथ जी के प्रसाद पहुँचाने का प्रबन्ध कर दिया।
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बहुत-से आदमी पहले से ही तैयारी करने के लिये भेजे गये कि जहां-जहाँ प्रभुका ठहरना हो, वहाँ वासस्थान तथा भोजनादि का सभी सुव्यवस्थित प्रबन्ध हो सके। महाप्रभु को पहुँचाने के लिये उन्होंने अपने हरिचन्दनेश्वर और मंगराज नामक दो राजमन्त्रियों को राज्यों की सीमा पार करने के निमित्त प्रभु के साथ कर दिये। महाप्रभु की आज्ञा पाकर महाराज अपनी राजधानी को लौट गये।
(क्रमशः)

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